जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद

महाभारत शान्ति पर्व के ‘मोक्षधर्म पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 262 के अनुसार जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

जाजलि का तुलाधार से धर्म के विषय में प्रश्न करना

उस समय बुद्धिमान् तुलाधार के इस प्रकार कहने पर जप करने वालों मे श्रेष्ठ मतिमान् जाजलि ने यह बात कही। जाजलि बोले- वैश्‍यपुत्र! तुम तो सब प्रकार के रस, गन्‍ध, वनस्‍पति, औषधि, मूल और फल आदि बेचा करते हो। महामते! तुम्‍हें यह धर्म में निष्ठा रखने वाली बुद्धि कहाँ से प्राप्‍त हुई? तुम्‍हें यह ज्ञान कैसे सुलभ हुआ? यह सब पूर्णरूप से मुझे बताओ।

तुलाधार द्वारा जाजलि को धर्म-सम्‍बन्‍धी सूक्ष्‍म बातों का वर्णन करना

भीष्‍म जी कहते हैं- राजन्! यशस्‍वी ब्राह्मण जाजलि के इस प्रकार पूछने पर धर्म और अर्थ के तत्‍व को जानने वाले तुलाधार वैश्‍य ने उन्‍हें धर्म-सम्‍बन्‍धी सूक्ष्‍म बातों को इस तरह बताना आरम्‍भ किया। तुलाधार बोले- जाजले! जो समस्‍त प्राणियों के लिये हितकारी और सबके प्रति मैत्रीभाव की स्‍थापना करने वाला है, जिसे सब लोग पुरातन धर्म के रूप में जानते हैं, गूढ़ रहस्‍यों सहित उस सनातन धर्म का मुझे ज्ञान हैं। जिसमें किसी भी प्राणी के साथ द्रोह न करना पड़े अथवा कम से कम द्रोह करने से काम चल जाय, ऐसी जो जीवन-वृत्ति है, वही उत्तम धर्म है। जाजले! मैं उसी से जीवन निर्वाह करता हॅू। मैंने दूसरों के द्वारा काटे गये काठ और घास-फूस से यह घर तैयार किया है। अलक्‍तक (वृक्ष विशेष की छाल), पद्मक (पद्मख), तुगंकाष्ठ तथा चन्‍दनादि गन्‍धद्रव्‍य एवं अन्‍य छोटी-बड़ी वस्‍तुओं को मैं दूसरों से खरीदकर बेचता हॅू। विप्रर्षे! मेरे यहाँ मदिरा नहीं बेची जाती, उसे छोडकर बहुत से पीने योग्‍य रसो को दूसरों से खरीदकर बेचता हॅू। माल बेचने में छल कपट एवं असत्‍य से काम नहीं लेता। जाजले! जो सब जीवों का सुह्रद् होता और मन, वाणी तथा क्रिया द्वारा सबके हित में लगा रहता है, वही वास्‍तव में धर्म को जानता है। मैं न किसी से अनुरोध करता हूँ न विरोध ही करता हूँ और न कहीं मेरा द्वेष है, न किसी से कुछ कामना करता हॅू। समस्‍त प्राणियों के प्रति मेरा समभाव हैं। जाजले! यही मेरा व्रत और नियम है, इस पर दृष्टिपात करो। मुने! मेरी तराजू सब मनुष्‍यों के लिये सम है-सबके लिये बराबर तौलती है। विप्रवर! मैं आकाश की भाँति रहकर जगत् के कार्यों की विचित्रता को देखता हुआ दूसरों के कार्यों की न तो प्रशंसा करता हूँ और न निन्‍दा ही। बुद्धिमानों में श्रेष्ठ जाजले! इस प्रकार तुम मुझे सब लोगों के प्रति समता रखने वाला और मिट्टी के ढेले, पत्‍थर तथा सुवर्ण को समान समझने वाला जानो।

जैसे अन्‍धे, बहरे और उन्‍मत्त (पागल) मनुष्‍य, जिनके नेत्र, कान आदि द्वार देवताओं ने सदा के लिये बंद कर दिये हैं, सदा केवल साँस लेते रहते हैं, मुझ द्रष्‍टा पुरुष की वैसी ही उपमा है। (अर्थात् मैं देखकर भी नहीं देखता, सुनकर भी नहीं सुनता और विषयों की ओर मन नहीं ले जाता, केवल साक्षीरूप से देखता हुआ श्‍वास-प्रश्‍वास मात्र की क्रिया करता रहता हॅू) जैसे वृद्ध, रोगी और दुर्बल मनुष्‍य विषयभोगों की स्‍पृहा नहीं रखते, उसी प्रकार मेरे मन से भी धन और विषय भोगों की इच्‍छा दूर हो गयी है। जब वह पुरुष दूसरे से भयभीत नहीं होता, जब दूसरे प्राणी भी इससे भयभीत नहीं होते तथा जब यह न तो किसी की इच्‍छा रखता है और न किसी से द्वेष ही करता है, तब ब्रह्माभाव को प्राप्‍त हो जाता है।[1] जब समस्‍त प्राणियों के प्रतिमन, वाणी और क्रिया द्वारा भी बुरे भाव नहीं होते हैं तब मनुष्‍य ब्रह्माभाव को प्राप्‍त होता है। जिसका भूत या भविष्‍य में कोई कार्य नहीं है तथा जिसके लिये कोई धर्म करना शेष नहीं हैं, साथ ही सम्‍पूर्ण भूतों को अभय प्रदान करता है, वही निर्भय पद को प्राप्‍त होता है। जैसे सब लोग मौत के मुख में जाने से डरते हैं, उसी प्रकार जिसके स्‍मरण मात्र से सब लोग उद्विग्‍न हो उठते हैं तथा जो कटुवचन बोलने वाला और दण्‍ड देने में कठोर हैं, ऐसे मनुष्‍य को महान् भय का सामना करना पड़ता है। जो वृद्ध हैं, पुत्र और पौत्रों से सम्‍पन्‍न है, शास्‍त्र के अनुसार यथोचित आचरण करते हैं और किसी भी जीव की हिंसा नहीं करते हैं, उन्‍हीं महात्‍माओं के बर्ताव का मैं भी अनुसरण करता हॅू।[2]

अनाचार से सनातन धर्म मोहयुक्‍त होकर नष्‍ट हो जाता है। उसके द्वारा विद्वान् तपस्‍वी तथा काम क्रोध को जीतने वाला बलवान् पुरुष भी मोह में पड़ जाता है। जाजले! जो जितेन्द्रिय पुरुष अपने चित्त में दूसरों के प्रति द्रोह न रखकर, इस प्रकार श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा पालित आचार को अपने आचरण में लाता है, वह विद्वान् वेदबोधित सदाचार का पालन करने से शीघ्र ही धर्म के रहस्‍य को जान लेता है। जैसे यहाँ नदी की धारा में दैवेच्‍छा से बहता हुआ काठ अकस्‍मात् किसी दूसरे काठ से संयुक्‍त हो जाता है; फिर वहाँ दूसरे-दूसरे काष्ठ, तिनके, छोटी-छोटी लकडि़याँ और सूखे गोबर भी आकर एक दूसरे से जुड़ जाते हैं, परंतु इन सबका वह संयोग आकस्मिक ही होता है, समझ-बूझकर नहीं। (इस प्रकार संसार के प्राणियों के भी परस्‍पर संयोग-वियोग होते रहते हैं) मुने! जिससे कोई भी प्राणी कभी किसी तरह भी उद्विग्‍न नहीं होता, वह सदा सम्‍पूर्ण भूतों से अभय प्राप्‍त कर लेता है। महामते! विद्वन्! जैसे नदी के तीर पर आकर कोलाहल करने वाले मनुष्‍य के डर से सभी जलचर जन्‍तु भय के मारे छिप जाते हैं तथा जिस प्रकार भेडि़ये को देखकर सभी थर्रा उठते हैं, उसी प्रकार जिससे सब लोग डरते हैं, उसे भी सम्‍पूर्ण प्राणियों से भय प्राप्‍त होता है। इस प्रकार यह अभयदानरूप आचार प्रकट हुआ है, जो सभी उपायों से साध्‍य है-जैसे बने वैसे इसका पालन करना चाहिये। जो इसे आचरण में लाता है वह सहायवान्, द्रव्‍यमान, सौभाग्‍यशाली तथा श्रेष्ठ समझा जाता है। अत: जो अभयदान देने में समर्थ होते हैं, उन्‍हीं को विद्वान् पुरुष शास्‍त्रों मे श्रेष्ठ बताते हैं। उनमें से जो बहिर्मुख होकर अपने हृदय में क्षणभगुंर विषय सुखों की इच्‍छा रखते हैं, वे कीर्ति और मान बड़ाई के लिये ही अभयदान रूप व्रत का पालन करते हैं; परंतु जो पटु या प्रवीण पुरुष हैं, वे पूर्णस्‍वरूप परब्रह्मा की प्राप्ति के लिये ही इस व्रत का आश्रय लेते है। तप, यज्ञ, दान और ज्ञान सम्‍बन्‍धी उपदेश के द्वारा मनुष्‍य यहाँ जो-जो फल प्राप्‍त करता है, वह सब उसे केवल अभय दान से मिल जाता है। जो जगत् में सम्‍पूर्ण प्राणियों को अभय की दक्षिणा देता है, वह मानो समस्‍त यज्ञों का अनुष्ठान कर लेता है तथा उसे भी सब ओर से अभयदान प्राप्‍त हो जाता है। प्राणियों की हिंसा न करने से जिस धर्म की सिद्धि होती है, उससे बढ़कर महान् धर्म कोई नही हैं। महामुने! जिससे कभी कोई भी प्राणी किसी तरह उद्विग्‍न नहीं होता, वह भी सम्‍पूर्ण प्राणियों से अभय प्राप्‍त कर लेता है।[2]

घर के भीतर रहने वाले सर्प के समान जिस पुरुष से सब लोग भयभीत रहते हैं, वह इहलोक अौर परलोक में भी कभी धर्म के फल को नहीं पाता। जो समस्‍त प्राणियों का आत्‍मा हो गया है और सम्‍पूर्ण भूतों को अपने से अभिन्‍न देखता है, उसे किसी विशेष स्‍थान की प्राप्ति नहीं होती। वह ब्रह्मास्‍वरूप हो जाता है। उसके पदचिह्न की खोज करने वाले देवता भी उस ज्ञानी पुरुष के मार्ग के विषय में मोहित हो जाते हैं-उसकी गति का पता नहीं पाते हैं। प्राणियों को अभयदान देना सब दानों से उत्तम बताया गया है। जाजले! मैं तुमसे यह सच्‍ची बात कहता हॅू, तुम इस पर विश्‍वास करो। जो स्‍वर्गादि की कामना करके धर्म कार्य करते हैं, वे ही स्‍वर्गादि फलों को पाकर सौभाग्‍यवान् कहलाते हैं, फिर वे ही पुण्‍यक्षीण होने के पश्‍चात् जब स्‍वर्ग से नीचे गिरते हैं, तब दुर्भाग्‍य से दूषित माने जाते हैं, इस प्रकार कर्मों का विनाश देखकर विज्ञ पुरुष सदा ही सकाम कर्मों की निन्‍दा करते हैं। जाजले! कोई भी धर्म निष्‍प्रयोजन या निष्‍फल नहीं है, उसका स्‍वरूप अत्‍यन्‍त सूक्ष्‍म है, स्‍वर्ग या ब्रह्मा की प्राप्ति के लिये ही यहाँ धर्म की व्‍याख्‍या की गयी है। धर्म का स्‍वरूप अत्‍यन्‍त सूक्ष्‍म होने के कारण वह सबकी समझ में नही आ सकता; क्‍योंकि उसके स्‍वरूप को छिपाने वाली बहुत-सी बाते हैं। बीच-बीच में विभिन्‍न सत्‍पुरुषों के आचारों को देखकर मनुष्‍य वास्‍तविक धर्म का ज्ञान प्राप्‍त करता है। जो लोग बैलों को बधिया करके बाँधते-नाथते, उनसे भारी बोझ ढुलाते और उनका दमन करके उन्‍हें काम पर निकालते हैं, जो कितने ही जीवों को मारकर खा जाते है, मनुष्‍य होकर मनुष्‍यों को दास बनाकर और उनके परिश्रम का फल आप भोगते हैं, उनकी तुम निन्‍दा क्‍यों नहीं करते हो? जो लोग वध और बन्‍धन की दशा में अपने को कितना कष्ट होता है, इस बात को जानते हैं तो भी दूसरों को वध, बन्‍धन और कैद के कष्ट में डालकर उनसे दिन-रात काम कराते हैं, उनकी निन्‍दा तुम क्‍यों नहीं करते हो?[3]

पाँच इन्द्रियों वाले समस्‍त प्राणियों में सूर्य, चन्‍द्र, वायु, ब्रह्मा, प्राण, यज्ञ और यमराज- इन सब देवताओं का निवास है, जो उन्‍हें जीते-जी बेचकर जीविका चलाते है, उन्‍हें अधर्म की प्राप्ति होती है। फिर मृत जीवों का विक्रय करने वालों के विषय में तो कहा ही क्‍या जाय? बकरा अग्नि का, भेड़ वरुण का, घोड़ा सूर्य का और बछडे चन्‍द्रमा के स्‍वरूप हैं, इनको बेचने से कल्‍याण की प्राप्ति नहीं होती। किंतु ब्रह्मन्! तेल, घी, शहद, और देवताओं की बिक्री करने में क्‍या हानि है, बहुत से मनुष्‍य तो दंश और मच्‍छरों से रहित देश में उत्‍पन्‍न और सुख से पले हुए पशुओं को यह जानते हुए भी कि ये अपनी माताओं को बहुत प्रिय है और इनके बिछुडने से उन्‍हें बहुत कष्‍ट होगा, जबरदस्‍ती आक्रमण करके ऐसे देशों में ले जाते हैं जहाँ दंश, मच्‍छर और कीचड़ की अधिकता होती है। कितने ही बोझ ढोने वाले पशु भारी भार से पीड़ित हो लोगों द्वारा अनुचित रूप से सताये जाते हैं। मैं समझता हूँ कि उस क्रूर कर्म से बढ़कर भ्रूण हत्‍या का पाप भी नहीं है। कुछ लोग खेती को अच्‍छा मानते हैं, परंतु वह वृत्ति भी अत्‍यन्‍त कठोर है। जाजले! जिसके मुख पर फाल जुड़ा हुआ है, वह हल पृथ्‍वी को पीड़ा देता है और उसके भीतर रहने वाले जीवों का भी वध कर डालता है और उसमें जो बैल जोते जाते हैं, उनकी दुर्दशा पर भी दृष्टिपात करो।[3] श्रु‍ति में गौओं का अघ्‍न्‍या (अवध्‍य) कहा गया है, फिर कौन उन्‍हें मारने का विचार करेगा? जो पुरुष गाय और बैलों को मारता है, वह महान् पाप करता है।

एक समय की बात है, ऋषियों और यतियों ने राजा नहुष के पास जाकर निवेदन किया कि तुमने माता गौ और प्रजापति वृषभ का वध किया है, नहुष! यह तुम्‍हारे द्वारा न करने योग्‍य पाप कर्म किया गया है, तुम्‍हारे इस कुकृत्‍य के कारण हम सब लोगों की बड़ी व्‍यथा हो रही है। जाजले! ऐसा कहकर नहुष के द्वारा प्रसंसित उन महाभाग ऋषियों ने पाप को एक सौ एक रोगों के रूप में परिणत करके समस्‍त प्राणियों पर डाल दिया, राजा नहुष को भ्रूण हत्‍यारा बताया और स्‍पष्‍ट कह दिया कि हम लोग तुम्‍हारे यज्ञ में हविष्‍य की आहुति नहीं देंगे। ऐसा कहकर उन समस्‍त तत्‍वार्थ दर्शी महात्‍माओं ने तपस्‍या (ध्‍यान) द्वारा सारी बाते जान लीं और नहुष के अज्ञानवश वह पाप होने के कारण उन्‍हें निर्दोष पाकर वे सब ऋषि और यति शान्‍त हो गये। जाजले! इस तरह के अमंगलकारी और भयंकर आचार इस जगत् में बहुत से प्रचलित है; केवल इसलिये कि अमुक कर्मपूर्वजों द्वारा भी किया गया है, तुम चतुर होते हुए भी उसकी बुराई पर ध्‍यान नहीं देते। इस कर्म का हेतु या परिणाम क्‍या है? इस पर विचार करके ही तुम्‍हें किसी भी धर्म को स्‍वीकार करना चाहिये। लोगों ने किया है या कर रहे है, यह जानकर उनका अन्‍धानुकरण नहीं करना चाहिये। जाजले! अब मैं अपने विषय में कुछ निवेदन करता हॅू, उसे सुनो,जो मुझे मारता है तथा जो मेरी प्रशंसा करता है, वे दोनों ही मेरे लिये बराबर हैं। उनमें से कोई भी मेरे लिये प्रिय या अप्रिय नहीं है, मनीषी पुरुष ऐसे ही धर्म की प्रशंसा करते हैं। यही युक्ति संगत है, यति भी इसी का सेवन करते हैं तथा धर्मात्‍मा मनुष्‍य अच्‍छी तरह विचारकर सदा इसी धर्म का अनुष्‍ठान करते हैं।[4]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 262 श्लोक 1-15
  2. 2.0 2.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 262 श्लोक 16-30
  3. 3.0 3.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 262 श्लोक 31-46
  4. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 262 श्लोक 47-55

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राजधर्म का साररूप में वर्णन | दण्ड के स्वरूप, नाम, लक्षण और प्रयोग का वर्णन | दण्ड की उत्पत्ति का वर्णन | दण्ड का क्षत्रियों कें हाथ में आने की परम्परा का वर्णन | त्रिवर्ग के विचार का वर्णन | पाप के कारण राजा के पुनरुत्थान के विषय में आंगरिष्ठ और कामन्दक का संवाद | इन्द्र और प्रह्लाद की कथा | शील का प्रभाव, अभाव में धर्म, सत्य, सदाचार और लक्ष्मी के न रहने का वर्णन | सुमित्र और ऋषभ ऋषि की कथा | राजा सुमित्र का मृग की खोज में तपस्वी मुनियों के आश्रम पर पहुँचना | सुमित्र का मुनियों से आशा के विषय में प्रश्न करना | ऋषभ का सुमित्र को वीरद्युम्न व तनु मुनि का वृतान्त सुनाना | तनु मुनि का वीरद्युम्न को आशा के स्वरूप का परिचय देना | ऋषभ के उपदेश से सुमित्र का आशा को त्याग देना | यम और गौतम का संवाद | आपत्ति के समय राजा का धर्म

आपद्धर्म पर्व

आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना

मोक्षधर्म पर्व

शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना


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