महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 262 श्लोक 31-46

द्विषष्‍टयधिकद्विशततम (262) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: द्विषष्‍टयधिकद्विशततम श्लोक 31-46 का हिन्दी अनुवाद

घर के भीतर रहने वाले सर्प के समान जिस पुरुष से सब लोग भयभीत रहते हैं, वह इहलोक अौर परलोक में भी कभी धर्म के फल को नहीं पाता। जो समस्‍त प्राणियों का आत्‍मा हो गया है और सम्‍पूर्ण भूतों को अपने से अभिन्‍न देखता है, उसे किसी विशेष स्‍थान की प्राप्ति नहीं होती। वह ब्रह्मास्‍वरूप हो जाता है। उसके पदचिह्न की खोज करने वाले देवता भी उस ज्ञानी पुरुष के मार्ग के विषय में मोहित हो जाते हैं-उसकी गति का पता नहीं पाते हैं। प्राणियों को अभयदान देना सब दानों से उत्तम बताया गया है। जाजले! मैं तुमसे यह सच्‍ची बात कहता हॅू, तुम इस पर विश्‍वास करो। जो स्‍वर्गादि की कामना करके धर्म कार्य करते हैं, वे ही स्‍वर्गादि फलों को पाकर सौभाग्‍यवान् कहलाते हैं, फिर वे ही पुण्‍यक्षीण होने के पश्‍चात् जब स्‍वर्ग से नीचे गिरते हैं, तब दुर्भाग्‍य से दूषित माने जाते हैं, इस प्रकार कर्मों का विनाश देखकर विज्ञ पुरुष सदा ही सकाम कर्मों की निन्‍दा करते हैं। जाजले! कोई भी धर्म निष्‍प्रयोजन या निष्‍फल नहीं है, उसका स्‍वरूप अत्‍यन्‍त सूक्ष्‍म है, स्‍वर्ग या ब्रह्मा की प्राप्ति के लिये ही यहाँ धर्म की व्‍याख्‍या की गयी है। धर्म का स्‍वरूप अत्‍यन्‍त सूक्ष्‍म होने के कारण वह सबकी समझ में नही आ सकता; क्‍योंकि उसके स्‍वरूप को छिपाने वाली बहुत-सी बाते हैं। बीच-बीच में विभिन्‍न सत्‍पुरुषों के आचारों को देखकर मनुष्‍य वास्‍तविक धर्म का ज्ञान प्राप्‍त करता है। जो लोग बैलों को बधिया करके बाँधते-नाथते, उनसे भारी बोझ ढुलाते और उनका दमन करके उन्‍हें काम पर निकालते हैं, जो कितने ही जीवों को मारकर खा जाते है, मनुष्‍य होकर मनुष्‍यों को दास बनाकर और उनके परिश्रम का फल आप भोगते हैं, उनकी तुम निन्‍दा क्‍यों नहीं करते हो? जो लोग वध और बन्‍धन की दशा में अपने को कितना कष्ट होता है, इस बात को जानते हैं तो भी दूसरों को वध, बन्‍धन और कैद के कष्ट में डालकर उनसे दिन-रात काम कराते हैं, उनकी निन्‍दा तुम क्‍यों नहीं करते हो?

पाँच इन्द्रियों वाले समस्‍त प्राणियों में सूर्य, चन्‍द्र, वायु, ब्रह्मा, प्राण, यज्ञ और यमराज- इन सब देवताओं का निवास है, जो उन्‍हें जीते-जी बेचकर जीविका चलाते है, उन्‍हें अधर्म की प्राप्ति होती है। फिर मृत जीवों का विक्रय करने वालों के विषय में तो कहा ही क्‍या जाय? बकरा अग्नि का, भेड़ वरुण का, घोड़ा सूर्य का और बछडे चन्‍द्रमा के स्‍वरूप हैं, इनको बेचने से कल्‍याण की प्राप्ति नहीं होती। किंतु ब्रह्मन्! तेल, घी, शहद, और देवताओं की बिक्री करने में क्‍या हानि है, बहुत से मनुष्‍य तो दंश और मच्‍छरों से रहित देश में उत्‍पन्‍न और सुख से पले हुए पशुओं को यह जानते हुए भी कि ये अपनी माताओं को बहुत प्रिय है और इनके बिछुडने से उन्‍हें बहुत कष्‍ट होगा, जबरदस्‍ती आक्रमण करके ऐसे देशों में ले जाते हैं जहाँ दंश, मच्‍छर और कीचड़ की अधिकता होती है। कितने ही बोझ ढोने वाले पशु भारी भार से पीड़ित हो लोगों द्वारा अनुचित रूप से सताये जाते हैं। मैं समझता हूँ कि उस क्रूर कर्म से बढ़कर भ्रूण हत्‍या का पाप भी नहीं है। कुछ लोग खेती को अच्‍छा मानते हैं, परंतु वह वृत्ति भी अत्‍यन्‍त कठोर है। जाजले! जिसके मुख पर फाल जुड़ा हुआ है, वह हल पृथ्‍वी को पीड़ा देता है और उसके भीतर रहने वाले जीवों का भी वध कर डालता है और उसमें जो बैल जोते जाते हैं, उनकी दुर्दशा पर भी दृष्टिपात करो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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