कालकवृक्षीय मुनि का उपख्यान

महाभारत शान्ति पर्व के ‘राजधर्मानुशासन पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 80 के अनुसार कालकवृक्षीय मुनि के उपख्यान का वर्णन इस प्रकार है[1]-

कालकवृक्षीय मुनि का कौए के साथ क्षेमदर्शी के देश में घुमना

हमने सुना है कि राजा क्षेमदर्शी जब कोसल प्रदेश के राजसिंहासन पर आसीन थे, उन्हीं दिनों कालकवृक्षीय मुनि उस राज्य में पधारे थे। उन्होंने क्षेमदर्शी के सारे देश में, उस राज्य का समाचार जानने के लिये एक कौए को पिंजड़े में बाँधकर साथ ले बड़ी सावधानी के साथ बांरबार चक्कर लगाया। घुमते समय वे लोगों से कहते थे, ‘सज्जनो! तुम लोग मुझ से वायसी विद्या (कौओं की बोली समझने की कला) सीखो। मैनें सीखी है, इसलिये कौए मुझसे भूत, भविष्य तथा इस समय जो वर्तमान है, वह सब बता देते है’। यही कहते हुए वे बहुतेरे मनुष्यों के साथ उस राष्ट्र में सब ओर घुमते फिरे।[1]

मुनि द्वारा राजा के चोरी हुए धन का पता लगाना

उन्होंने राजकार्य में लगे हुए समस्त कर्मचारियों का दुष्कर्म अपनी आँखों देखा। उस राष्ट्र के सारे व्यवसायों को जानकर तथा राजकीय कर्मचारियों द्वारा राजा की सम्पत्ति के अपहरण होने की सारी घटनाओं का जहाँ-तहाँ से पता लगाकर वे उत्तम व्रत का पालन करने वाले महर्षि अपने को सर्वज्ञ घोषित करते हुए उस कौए को साथ ले राजा से मिलने के लिये आये।[1]

मंत्रियो द्वारा कौए का वध करना

कोसलनरेश के निकट उपस्थित हो मुनि ने सज-धजकर बैठे हुए राजमन्त्री से कौए के कथन का हवाला देते हुए कहा-‘तुमने अमुक स्थान पर राजा के अमुक धन की चोरी की है। अमुक-अमुक व्यक्ति इस बात को जानते हैं, जो इसके साक्षी हैं’। हमारा यह कौआ कहता है कि ‘तुमने राजकीय कोष का अपहरण किया है; अतः तुम अपने इस अपराध को शीघ्र स्वीकार करो’। इसी प्रकार मुनी ने राजा के खजाने से चोरी करने वाले अन्य कर्मचारियों से भी कहा -‘तुमने चोरी की है। मेरे इस कौए की कही हुई कोई भी बात कभी और कहीं भी झूठी नहीं सुनी गयी है’। कुरुश्रेष्ठ! इस प्रकार मुनि के द्वारा तिरस्कृत हुए सभी राजकर्मचारियों ने अँधेरी रात में सोये हुए मुनि के उस कौए को बाण से बींधकर मार डाला। अपने कौए को पिंजडे़ में बाण से विदीर्ण हुआ देखकर ब्राह्मण ने पूर्वाह्न में राजा क्षेमदर्शी से इस प्रकार कहा।[1]

मुनि और राजा का संवाद

राजन! आप प्रजा के प्राण और धन के स्वामी हैं। मैं आप से अभय की याचना करता हूँ। यदि आज्ञा हो तो मैं आपसे हित की बात कहूँ। ‘आप मेरे मित्र हैं। मैं आप के हित के लिये आपके प्रति सम्पुर्ण हृदय से भक्ति भाव रखकर यहाँ आया हूँ। आपकी जो हानि हो रही है, उसे देखकर मैं बहुत संतप्त हूँ। ‘जैसे सारथि अच्छे घोडे़ को सचेत करता है, उसी प्रकार यदि कोई मित्र मित्र को समझाने के लिये आया हो, मित्र की हानि देखकर जो अत्यन्त दुखी हो और उसे सहन न कर सकने के कारण जो हठपूर्वक अपने सुहृद राजा का हितसाधन करने के लिये उसके पास आकर कहे कि ‘राजन! तुम्हारे इस धन का अपहरण हो रहा है’ तो सदा ऐश्वर्य और उन्नति की इच्छा रखने वाले विज्ञ एवं सुहृद् पुरुष को अपने उस हितकारी मित्र की बात सुननी चाहिये और उसके अपराध को क्षमा कर देना चाहिये’। राजा क्षेमदर्शी और कालकवृक्षी मुनि तब राजा ने मुनि को इस प्रकार उत्तर दिया - ब्राहाण! आप जो कुछ कहना चाहे, मुझसे निर्भर होकर कहें। अपने हित की इच्छा रखने वाला मैं आपको क्षमा क्यो नहीं करूँगा ? विप्रवर! आप जो चाहें , कहिये। मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि आप मुझसे जो कोई भी बात कहेंगे, आपकी उस आज्ञाका मैं पालन करूँगा‘।[2]

मुनि का राजा को समझाना

मुनि बोले -महाराज! आपके कर्मचारियों में से कौन अपराधी है और कौन निरपराध ? इस बात का पता लगाकर तथा आप पर आपके सेवकों की ओर से ही अनेक भय आने वाले है, यह जाकर प्रेमपूर्वक राज्य का सारा समाचार बताने के लिये मैं आपके पास आया था। नीतिशास्त्र आचार्यं ने राज सेवकों के इस दोष का पहले से ही वर्णन कर रखा है कि राजा की सेवा करने वाले लोग है उनके लिये यह पापमयी जीविका अगतिक गति है, अर्थात जिन्हें कहीं भी सहारा नहीं मिलता, वे राजा के सेवक होते हैं। जिसका राजाओं के साथ मेल-जोल हो गयी, ऐसी नीतिज्ञों का कथन है। राजा के जहाँ बहुत से मित्र होते है, वहीं उनके अनेक शत्रु भी हुआ करते हैं। राजा के आश्रित होकर जीविका चलाने वालों को उन सभी से भय बताया गया है। राजन्! स्वयं राजा से भी उन्हें घड़ी - घड़ी में खतरा रहता है। राजा के पास रहने वालों से कभी कोई प्रमाद हो ही नहीं, यह तो असम्भव है, परंतु जो अपना भला चाहता हो उसे किसी तरह उसकें पास जान -बूझकर प्रमाद नहीं करना चाहिये। यदि सेवक के द्वारा असावधानी के कारण कोई अपराध बन गया तो राजा पहले के उपकार को भुलाकर कुपित हो उससे द्वेष करने लगता है और जब राजा अपनी मर्यादा से भ्रष्ट हो जाय तो उस सेवक के जीवन की आशा नहीं रह जाती। जैसे जलती हुई आग के पास मनुष्य सचेत होकर जाता है, उसी प्रकार शिक्षित पुरुष को राजा के पास सावधानी से रहना चाहिये। राजा प्राण और धन दोनों का स्वामी हैं। जब वह कुपित होता है तो विषधर सर्प के समान भयंकर हो जाता है; अतः मनुष्य को चाहिये कि मैं जीवित नहीं हूँ ऐसा मानकर अर्थात अपनी जान को हथेली पर लेकर सदा बडे यत्न से राजा की सेवा करे।[2] मुँह से कोई बुरी बात न निकल जाय, कोई बुरा काम न बन जाय, खडा होते, किसी आसन पर बैठते चलते, संकेत करते तथा किसी अंग के द्वारा कोई चेष्टा करते समय असभ्यता अथवा बेअदबी न हो जाय, इसके लिये सदा सतर्क रहना चाहिये। यदि राजा को प्रसन्न कर लिया जाय तो वह देवता की भाँति सम्पूर्ण मनोरथ सिद्ध कर देता है और यदि कुपित हो जाय तो जलती हुई आग की भाँति जड मूलसहित भस्म कर डालता है। राजन्! यमराज ने जो यह बात कही है, वह ज्यों की त्यों ठीक है; फिर भी मैं तो बारंबार आपके महान अर्थ का साधन करूंगा ही। मेरे जैसा मन्त्री आपत्तिकाल में बुद्धि द्वारा सहायता देता है। राजन्! मेरा यह कौआ भी आपके कार्यसाधन में संलग्न था; किंतु मारा गया ( सम्भव है मेरी भी वही दशा हो )। परंतु इसके लिये मैं आपकी और आपके प्रेमियों की निंदा नहीं करता। मेरा कहना तो इतना ही है कि आप स्वयं अपने हित और अनहित को पहचानिये। प्रत्येक कार्य को अपनी आँखों से देखिये। दूसरों की देख भाल पर विश्वास न कीजिये। जो लोग आपका खजाना लूट रहे है और आपके ही घर में रहते है, वे प्रजा की भलाई चाहने वाले नहीं है।[3] वैसे लोगों ने मेरे साथ वैर बाँध लिया है। राजन! जो आपका विनाश करके आपके बाद इस राज्य को अपने हाथ में लेना चाहता है, उसका वह कर्म अन्तःपुर के सेवकों से मिलकर कोई षड्यन्त्र करने से ही सफल हो सकता है; अन्यथा नहीं ( अतः आपको सावधान हो जाना चाहिये )। नरेश्वर! मैं उन विरोधियों के भय से दूसरे आश्रम में चला जाऊँगा। प्रभों! उन्होंने मेरे लिये ही बाण का संधान किया था; किंतु वह उस कौए पर जा गिर। मैं कोई कामना लेकर यहाँ नहीं आया था तो भी छल-कपट की इच्छा रखने वाले षडयंत्रकारियों ने मेरे कौए को मारकर यमलोक पहुँचा दिया। राजन्! तपस्या के द्वारा प्राप्त हुई दूरदर्शिनी दृष्टि से मैंने यह सब देखा है। यह राजनीति एक नदी के समान है। राजकीय पुरुष उसमें मगर, मत्स्य, तिमिगंल-समूहों और ग्राहों के समान है। बेचारे कौए के द्वारा मैं किसी तरह इस नदी से पार हो सकता हूँ। जैसे हिमालय की कन्दरा में ठूँठ, पत्थर और काँटे होते है, उसके भीतर सिंह और व्याघ्रों का भी निवास होता है तथा इन्हीं सब कारणों से उसमें प्रवेश पाना या रहना अत्यन्त कठिन एवं दुःसह हो जाता है, उसी प्रकार दुष्ट अधिकारियों के कारण इस राज्य में किसी भले मनुष्य का रहना मुश्किल है। अन्धकारमय दुर्ग को अग्नि के प्रकाश से तथा जल दुर्ग को नौकाओं द्वारा पार किया जा सकता है; परंतु राजारूपी दुर्ग से पार होने के लिये विद्वान पुरुष भी कोई उपाय नहीं जानते है। आपका यह राज्य गहन अन्धकार से आच्छन्न और दुख से परिपूर्ण है। आप स्वयं भी इस राज्य पर विश्वास नहीं कर सकते; फिर मैं कैसे करूँगा। अतः यहाँ रहने में किसी का कल्याण नहीं है। यहाँ भले बुरे सब एक समान है। इस राज्य में बुराई करने वाले और भलाई करने वाले का भी वध हो सकता है, इसमें संशय नहीं है।[3] न्याय की बात तो यह है कि बुराई करने वाले को ही मारा जाय और पुण्य श्रेष्ठ कर्म करने वाले को किसी तरह भी कोई कष्ट न होने पावे, परंतु यहाँ ऐसा नहीं होता; अतः इस राज्य में स्थिर भाव से निवास करना किसी के लिये भी उचित नहीं है। विद्वान पुरुष को यहाँ से अति शीघ्र हट जाना चाहिये। राजन! सीता नाम से प्रसिद्ध एक नदी है, जिसमें नाव भी डूब जाती है, वैसी ही यहाँ की राजनीति भी है ( इसमें मेरे जैसे सहायकों के भी डूब जाने की आशंका है )। मैं तो इसे समस्त प्राणियों का विनाश करने वाली फाँसी ही समझता हूँ। आप शहद के छत्ते से युक्त पेड की उस ऊंची डाली के समान है, जहाँ से नीचे गिरने का ही भय है। आप विष मिलाये हुए भोजन के तुल्य है, आपका भाव असज्जनों के समान है, सज्जनों के तुल्य नहीं है। भूपाल! आप विषैले सर्पों से घिरे हुए कुएँ के समान हैं, राजन! आपकी अवस्था उस मीठे जलवाली नदी के समान हो गयी हैं, जिसके घाटतक पहुँचना कठिन हैं, जिसकंे दोंनो किनारे बहुत ऊँचें हो और वहाँ करील के झाड़ तथा बेत की वल्लरियाँ सब ओर छा रही हो।[4] जैसे कुत्तों, गधों और गीदड़ों से घिरा हुआ राजहंस बैठा हो, उसी तरह दुष्ट कर्मचारियों से आप घिरे हुए हैं। जैसे लताओं का विशाल समूह किसी महान् वृक्ष का आश्रय लेकर बढ़ता है, फिर धीरे-धीरे उस वृक्ष को लपेट लेता है और उसका अतिक्रमण करके उससें भी ऊँचे तक फैल जाता हैं, फिर वही सूखकर भयानक ईंधन बन फैल जाता हैं, तब दारुण दावानल उसी ईंधन के सहारे उस विशाल वृक्ष को भी जला डालता हैं, राजन्! आपके मन्त्री भी उन्हीं सूखी लताओं के समान हो गयें हैं अर्थांत् आपके ही आश्रय से बढ़कर आप ही के विनाश का कारण बन रहे हैं। अतः आप उनका शोधन कीजिये। नरेश्वर! आपने ही जिन्हें मन्त्रीं बनाया और आपने जिनका पालन किया, वे आपसे ही कपट भाव रखकर आपके ही हित का विनाश करना चाहते हैं। मैं राजा के साथ रहने वाले अधिकारियों का शीलस्वभाव जानना चाहता था, इसलिये सदा सशक्त रहकर बड़ी सावधानी के साथ यहाँ रहा हूँ। ठीक उसी तरह, जैसे कोई साँप वाले मकान में रहता हो अथवा किसी शूरवीर की पत्नी के घर में घुस गया हो। क्या इस देश के राजा जितेन्द्रिय हैं? क्या इनके अंदर रहने वाले सेवक इनके वश में है? क्या यहाँ की प्रजाओं का राजा पर प्रेम हैं? और राजा भी क्या अपनी प्रजाओं पर प्रेम रखते हैं? नृपश्रेष्ठ! इन्हीं सब बातों को जानने की इच्छा से मैं आपके यहाँ आया था। जैसे भूखें को भोजन अच्छा लगता हैं, उसी प्रकार आपका दर्शन मुझे बड़ा प्रिय लगता है; परंतु जैसे प्यास न रहने पर पानी अच्छा नहीं लगता, उसी प्रकार आपके ये मन्त्री मुझे अच्छे नहीं जान पड़ते हैं। मैं आपकी भलाई करने वाला हूँ, यही इन मन्त्रियों मे मुझमें बड़ा भारी दोष पाया है और इसलिये ये मुझसे द्वेष रखने लगे हैं। इसके सिवा दूसरा कोई इनके रोष का कारण नहीं हैं। मुझे अपने इस कथन की सत्यता में कोई संदेह नहीं हैं।[4] यद्यपि मैं इन लोगों से द्रोह नहीं करता तो भी मेरे प्रति इन लोगों की दोष-दृष्टि हो गयी हैं। जिसकी पूँछ दबा दी गयी हो, उस सर्पं के समान दुष्ट हृदयवाले शत्रु से सदा डरते रहना चाहिये (इसलिये अब मैं यहाँ रहना नहीं चाहता)।[5]

राजा द्वारा मुनि की बातों का अनुमोदन करना

राजा ने कहा-विप्रवर! आप पर आने वाले भय अथवा संकट का विशेष रूप से निवारण करते हुए मैं आपको बड़े आदर-सत्कार के साथ अपने यहाँ रखूँगा। आप मेरे द्वारा सम्मानित हो बहुत काल तक मेरे महल में निवास कीजिये। ब्रह्मन! जो आपको मेरे यहाँ नहीं रहने देना चाहते हैं, वे स्वयं ही मेरे घर में नहीं रहने पायेंगे अब इन विरोधियों का दमन करने के लिये जो आवश्यक कर्तव्य हो, उसे आप स्वयं ही सोचिये और समझिये। भगवन! जिस तरह राजदण्ड को मैं अच्छी तरह धारण कर सकूँ और मेरे द्वारा अच्छे ही कार्य होते रहें, वह सब सोचकर आप मुझे कल्याण के मार्गं पर लगाइये।[5]

मुनि द्वारा राजा को अपना परिचय देना

मुनि ने कहा-राजन! पहले तो कौए को मारने का जो अपराध है, इसे प्रकट किये बिना ही एक-एक उसके बाद अपराध के कारण का पूरा-पूरा पता लगाकर क्रमशः एक-एक व्यक्ति का वध कर डालिये। नरेश्वर! जब बहुत-से लोगों पर एक ही तरह का दोष लगाया जाता है तो वे सब मिलकर एक हो जाते हैं और उस दशा में वे बड़े-बड़े कण्टकों को भी मसल डालते हैं, अतः यह गुप्त विचार दूसरों पर प्रकट न हो जाय, इसी भय से मैं तुम्हें इस प्रकार एक-एक करके विरोधियों के वध की सलाह दे रहा हूँ। महाराज! हम लोग ब्राह्मण हैं। हमारा दण्ड भी बहुत कोमल होता है। हम स्वभाव से ही दयालु होते हैं; अतः अपने ही समान आपका और दूसरों का भी भला चाहते हैं। राजन! अब मैं आपको अपना परिचय देता हूँ। मैं आपका सम्बन्धी हूँ। मेरा नाम हैं कालकवृक्षीय मुनि। मैं आपके पिता का आदरणीय एवं सम्यप्रतिज्ञ मित्र हूँ। नरेश्वर! आपके पिता के स्वर्गवास हो जाने के पश्चात् जब आपके राज्य पर भारी संकट आ गया था, तब अपनी समस्त कामनाओं का परित्याग करके मैंने (आपके हित के लिये) तपस्या की थी। आपके प्रति स्नेंह होने के कारण मैं फिर यहाँ आया हूँ और आपको ये सब बातें इसलिये बता रहा हूँ कि आप फिर किसी के चक्कर में न पड़ जायँ। महाराज! आपने सुख और दुःख दोनों देखे हैं। यह राज्य आपको दैवेच्छा से प्राप्त हुआ हैं तो भी आप इसे केवल मन्त्रियों पर छोड़कर क्यों भूल कर रहे हैं? तदनन्तर पुरोहित के कुल में उत्पन्न विप्रवर कालकवृक्षीय मुनि के पुनः आ जाने से राज परिवार में मंगल पाठ एवं आनन्दोत्सव होने लगा। कालकवृक्षीय मुनि ने अपने बुद्धिबल से यशस्वी कोसलनरेश को भूमण्ड़ल का एकच्छत्र सम्राट बनाकर अनेक उत्तम यज्ञों द्वारा यजन किया। भारत! कोसलराज ने भी पुरोहित का हितकारी वचन सुना और उन्हांने जैसा कहा, वैसा ही किया। इससे उन्होंने समस्त भूमण्डल पर विजय प्राप्त कर ली।[5]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 82 श्लोक 1-16
  2. 2.0 2.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 82 श्लोक 17-29
  3. 3.0 3.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 82 श्लोक 30-43
  4. 4.0 4.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 82 श्लोक 44-56
  5. 5.0 5.1 5.2 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 82 श्लोक 57-70

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राजधर्मानुशासन पर्व
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युधिष्ठिर को समझाना | व्यास का युधिष्ठिर को समझाते हुए देवासुर संग्राम का औचित्य सिद्ध करना | कर्मों को करने और न करने का विवेचन | पापकर्म के प्रायश्चितों का वर्णन | स्वायम्भुव मनु के कथानुसार का धर्म का स्वरूप | पाप से शुद्धि के लिए प्रायश्चित | अभक्ष्य वस्तुओं का वर्णन | दान के अधिकारी एवं अनधिकारी का विवेचन | व्यासजी और श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर का नगर में प्रवेश | नगर प्रवेश के समय पुरवासियों एवं ब्राह्मणों द्वारा राजा युधिष्ठिर का सत्कार | चार्वाक का ब्राह्मणों द्वारा वध | चार्वाक को प्राप्त हुए वर आदि का श्रीकृष्ण द्वारा वर्णन | युधिष्ठिर का राज्याभिषेक | युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र के अधीन रहकर राज्य व्यवस्था के लिए अपने का भाइयों को नियुक्त करना | युधिष्ठिर और धृतराष्ट्र का युद्ध में मारे गये सगे-संबंधियों का श्राद्धकर्म करना | युधिष्ठिर द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति | युधिष्ठिर द्वारा दिये हुए भवनों में सभी भाइयों का प्रवेश और विश्राम | युधिष्ठिर द्वारा ब्राह्मणों एवं आश्रितों का सत्कार | युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण का संवाद | श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म की प्रशंसा तथा युधिष्ठिर को उनके पास चलने का आदेश | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति-भीष्मस्तवराज | परशुराम द्वारा होने वाले क्षत्रिय संहार के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | परशुराम के उपाख्यान क्षत्रियों का विनाश तथा पुन: उत्पन्न होने की कथा | श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म के गुण-प्रभाव का वर्णन | श्रीकृष्ण का भीष्म की प्रशंसा करते हुए उन्हें युधिष्ठिर को धर्मोपदेश देने का आदेश देना | भीष्म द्वारा अपनी असर्मथता प्रकट करने पर भगवान श्रीकृष्ण का उन्हें वर देना | पाण्डवों व ऋषियों का भीष्म से विदा लेना | श्रीकृष्ण की प्रातश्चर्या | सात्यकि द्वारा कृष्ण का संदेश पाकर युधिष्ठिर का भाइयों सहित कुरुक्षेत्र में आना | श्रीकृष्ण और भीष्म की बातचीत | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को गुण-कथनपूर्वक प्रश्न करने का आदेश देना | भीष्म के आश्वासन पर युधिष्ठिर का उनके समीप जाना | युधिष्ठिर के पूछने पर भीष्म द्वारा राजधर्म का वर्णन | राजा के लिए पुरुषार्थ, सत्य, ब्राह्मणों की अदण्डनीयता | राजा की परिहासशीलता तथा मृदुता में प्रकट होने वाले दोष | राजा द्वारा धर्मानुकूल नीतिपूर्ण बर्ताव का वर्णन | भीष्म द्वारा राज्यरक्षा का वर्णन | युधिष्ठिर का 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राजधर्म का साररूप में वर्णन | दण्ड के स्वरूप, नाम, लक्षण और प्रयोग का वर्णन | दण्ड की उत्पत्ति का वर्णन | दण्ड का क्षत्रियों कें हाथ में आने की परम्परा का वर्णन | त्रिवर्ग के विचार का वर्णन | पाप के कारण राजा के पुनरुत्थान के विषय में आंगरिष्ठ और कामन्दक का संवाद | इन्द्र और प्रह्लाद की कथा | शील का प्रभाव, अभाव में धर्म, सत्य, सदाचार और लक्ष्मी के न रहने का वर्णन | सुमित्र और ऋषभ ऋषि की कथा | राजा सुमित्र का मृग की खोज में तपस्वी मुनियों के आश्रम पर पहुँचना | सुमित्र का मुनियों से आशा के विषय में प्रश्न करना | ऋषभ का सुमित्र को वीरद्युम्न व तनु मुनि का वृतान्त सुनाना | तनु मुनि का वीरद्युम्न को आशा के स्वरूप का परिचय देना | ऋषभ के उपदेश से सुमित्र का आशा को त्याग देना | यम और गौतम का संवाद | आपत्ति के समय राजा का धर्म

आपद्धर्म पर्व

आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना

मोक्षधर्म पर्व

शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना


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