गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 16भगवान सदा ही शरणागतःवत्सल है, प्रपन्न-पारिजात हैं तथापि माया-भ्रमित जीव भगवत्-शरणागत न होकर भवाटवी में अनादिकाल से भटक रहा है। ‘भयं द्वितीयाभिनिवेशतः स्यादीशादपेतस्य विपर्ययोऽस्मृतिः। अर्थात भगवद्-विमुख जीव को ईश्वर की माया से स्वरूप-विस्मरण हो जाता है। माया का स्वरूप ही आच्छादक है; जीव के वास्तविक परमात्मा-स्वरूप को आच्छादित करना ही माया का कार्य है। स्व-स्वरूप-विस्मरण से विपर्यय हो जाता है; अद्वैत में द्वैत का, अमूर्त में मूर्त का निष्प्रपंच में प्रपंच का मान ही विपर्यय है; विपर्यय से भय, भय से बन्धन होता है। गुरु एवं देवता में आत्मा का संग ही इस भय से निवृत्ति का एकमात्र उपाय है; ‘गुरुदेवतात्मा गुरुदेवतात्मा सन्‘ गुरु में देवता में दोनों में भक्तियुक्त मन। ‘यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ। अर्थात, गुरु और इष्टदेव में अभेदभाव से तन्मय होकर उस ईश्वर को ही भजें, भगवदुन्मुख हो; भगवद्-वैमुख्य ही संसार-प्रपंच का मूल है; भगवद् सामुख्य ही निवृत्ति का एकमात्र कारण है। ‘क्रोधनेभ्यस्तपोघनेभ्यः वारवनितेव‘, जैसे कोई स्वैरिणी तपोधनों से भय खाती है, वैसे ही भगवदुन्मुख जीव से माया-नटिनी भी भय खाती है। ‘मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।‘[3] भगवत-कथन है, ‘मेरी शरण हो जाने पर माया जीव को सताती नहीं।‘ यहाँ एक ही श्लोक में बन्ध और मोक्ष दोनों की ही प्रक्रिया बतला दी गई है। गोपांगनाएँ कह रही है, ‘पतिसुतान्वयभा्रतृबान्धवानति विलंगध्य तेऽत्यच्युतागताः‘ हे अच्युत! हम सर्वस्व का त्याग कर आपकी शरण आयी हैं। |