गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 15अटति यद् भवानह्रि काननं त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम्। अर्थात्, हे प्रिय! दिन के समय जब आप वन में विहरण करते रहते हैं तो आपके अदर्शन से हमें एक-एक क्षण भी युगवत् प्रतीत होने लगता है; सन्ध्या समय जब आप लौटते हैं और हम आपकी घुँघराली लटों से युक्त मुखचन्द्र को निहारने लगती हैं तो हमारी आँखों की पलकें ही हमारे लिये शत्रृवत् हो जाती हैं क्योंकि इनका बार-बार गिरना आपके मुखचन्द्र के दर्शन में विघ्नकारक होता है। ऐसे समय हमको प्रतीत होता है कि इन नेत्रों को बनाने वाले विधाता जड़मूर्ख हैं। ‘अटति यद् भवानह्रि काननं’ आप दिनभर वृन्दावन में पर्यटन करते हैं; आपका यह पर्यटन सर्वथा प्रयोजनरहित है। इस वृन्दावन में तो कोई दर्शनीय वस्तु भी नहीं है; गोकुल में, नन्द-ग्राम में, बरसाने में रासेस्वरी, नित्यनिकुज्जे-श्वरी, वृषभानुनन्दिनी श्री राधारानी के मंगलमय मुखचन्द्र का दर्शन हो सकता है; इस दर्शन से आपके नेत्र सफल हो सकते हैं। तब भी, आप तो वन में ही पर्यटन करते रहते हैं और आपके अदर्शन से हम लोगों को त्रृटिवत् काल भी युगवत् प्रतीत होता है। विश्वनाथ चक्रवर्ती के मतानुसार शत कमल-पत्र को एक पर एक रखकर तीव्र धारयुक्त तलवार से वेगयुक्त छेदन के प्रयास में तलवार की गति के पौर्वापर्य-कालसमूह से भी जो सूक्ष्म काल है वही क्षण कहलाता है। एक क्षण का सत्ताईस सौवाँ भाग ‘त्रुटि’ कहा जाता है। सूक्ष्मता के कारण त्रुटि-काल अनुभूत भी नहीं हो सकता। ‘त्रसरेणुत्रिकं भुङ्क्ते यः कालः स त्रुटिः समृतः’ [1]। ‘त्रुटि’ वह काल है जितने समय में सूर्य तीन त्रसरेणुओं का उल्लंघन करता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भा0 3/11/6