गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 154

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 4

न खलु गोपिकानन्दनो भवान् अखिलदेहिनामन्तरात्मदृक्।
विखनसार्थितो विश्वगुप्तये सख! उदेयिवान् सात्वतां कुले।।4।।

अर्थात, हे सखे! तुम केवल गोपिकानन्दन ही नहीं हो, अपितु समस्त शरीरधारियों के अन्तर्यामी, सर्वसाक्षी भी हो, ब्रह्माजी के द्वारा प्रार्थना किये जाने पर विश्व की रक्षा हेतु ही आपका यदुकुल में, सात्वतवंश में आविर्भाव हुआ है।

गोपांगनाएँ कह रही हैं, हे सखे! आप केवल व्रजेन्द्रनन्दन, गोपिकानन्दन, यशोदानन्दन, विचित्र-सौन्दर्य-माधुर्य-पूर्ण, दिव्य-अद्भुत-लीला-नायक श्रीकृष्ण ही नहीं हैं अपितु सच्चिदानन्दघन, परमानन्दकन्द, परात्पर परब्रह्मस्वरूप अन्तरात्मदृक् भी हैं। प्राणिमात्र के अन्तरात्मा का द्रष्टा साक्षी ही अन्तर्यामी किंवा आत्मदृक् है-तात्पर्य यह कि व्रजांगनाओं ने श्रीकृष्ण का अनुगमन केवल परमप्रेमास्पद-कान्त-बुद्धि से ही नहीं किया अपितु वे उनके मंगलमय आम्दृक् स्वरूप से भलीभाँति परिचित थीं।

‘यत्पत्यपत्यसुहृदामनुवृत्तिरंग स्त्रीणां स्वधर्म इति धर्मविदा त्वयोक्तम्।
अस्त्वेवमेतदुपदेशपदे त्वयीशे प्रेष्ठो भवांस्तनुभृतां किल बन्धुरात्मा।।’[1]

अर्थात् भगवान्‌ श्रीकृष्ण का अनुसन्धान करती हुई व्रजांगनाएँ वृन्दावन तक चली आयीं। उनको उपदेश देते हुए भगवान् श्रीकृष्ण कह रहे हैं, हे व्रजांगनाओ! तुम इस समय यहाँ कैसे चली आयीं? पति की सेवा, अपत्यों (सन्तानों) का लालन-पालन, गुरुजनों एवं बन्धुजनों की शुश्रूषा तथा अनुवर्तन ही स्त्रियों का परम धर्म है अतः तुम अपने-अपने घरों को वापस लौट जाओ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीद्भा. 10। 29। 32

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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