गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 304

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 10

प्रहसितं प्रिय! प्रेमवीक्षणं
विहरणं च ते ध्यान मगंलम्।
रहसि संविदो या हृदिस्पृशः
कुहक नो मनः क्षोभयन्ति हि ।।10।।

अर्थात, हे प्रिय! तुम्हारी प्रेममयी मुसुकान एवं क्रीड़ाओं की स्मृति भी आनन्द प्रदायिनी है। हे कुहक! तुम्हारे साथ ऐकान्त में की गई मधुर लीलाओं की स्मृति हमारे मन को क्षुब्ध कर देती है। ‘कुहक नो मनः क्षोभयन्ति’ अर्थात हे छलिया! हे कपटी! तुम्हारे कारण हमारे मन में क्षोप हो रहा है। गोपाङनाएँ भगवान श्रीकृष्ण के प्रति कुहक, कितव, छलिया आदि संबोधनों का प्रयोग करती हैं। भगवान श्रीकृष्ण से अंगीकृत उच्चकोटि के भक्त ही भगवान के प्रति इस तरह के सम्बोधनों का प्रयोग करने में समर्थ होते हैं। श्रीकृष्ण को भी ऐसे अटपटे प्रेमरसभीने सम्बोधन विशेषतः प्रिय हैं।

सामान्यतः प्राणी अपने मन को बरबस संसार से हटाकर भगवान में लगाने का प्रयास करता है परन्तु गोपाङनाएँ अपने मन को श्रीकृष्ण से हटाकर संसार में लगाने का प्रयास करती हैं। ऐसी उच्च भावना उच्च भक्तों की ही हो सकती है जो भगवद्-संग, भगवद्-साक्षात्कार प्राप्त कर चुके है; जिन्होंने अन्तरात्मा में, अन्तःकरण में, प्राणों में, रोम-रोम में प्रेम को धारण कर लिया है।
भगवान श्रीकृष्ण मायापति हैं अतः वे ही सर्वाधिक कुहक हैं, छलिया हैं।
‘माया तत्र न कर्तव्या माया तैरेव निर्मिता’ अर्थात, जिसने माया बनाई उससे माया न करें। ब्रह्मा ने मायापति में ही ‘माया’ का प्रयोग किया; जैसे रात्रि में कुहासे का प्रभाव नहीं पड़ता वैसे ही मायापति पर की गई माया व्यर्थ हो जाती है। मायापति भगवान् अपनी मंगलमयी लीला-शक्ति द्वारा जीव के कल्याण हेतु ही लीला करते हैं। इस लीला से भी भगवद्-भक्त को क्षोभ होता है, यह क्षोभ भी भक्ति का स्वरूप ही है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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