गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 10प्रहसितं प्रिय! प्रेमवीक्षणं अर्थात, हे प्रिय! तुम्हारी प्रेममयी मुसुकान एवं क्रीड़ाओं की स्मृति भी आनन्द प्रदायिनी है। हे कुहक! तुम्हारे साथ ऐकान्त में की गई मधुर लीलाओं की स्मृति हमारे मन को क्षुब्ध कर देती है। ‘कुहक नो मनः क्षोभयन्ति’ अर्थात हे छलिया! हे कपटी! तुम्हारे कारण हमारे मन में क्षोप हो रहा है। गोपाङनाएँ भगवान श्रीकृष्ण के प्रति कुहक, कितव, छलिया आदि संबोधनों का प्रयोग करती हैं। भगवान श्रीकृष्ण से अंगीकृत उच्चकोटि के भक्त ही भगवान के प्रति इस तरह के सम्बोधनों का प्रयोग करने में समर्थ होते हैं। श्रीकृष्ण को भी ऐसे अटपटे प्रेमरसभीने सम्बोधन विशेषतः प्रिय हैं। सामान्यतः प्राणी अपने मन को बरबस संसार से हटाकर भगवान में लगाने का प्रयास करता है परन्तु गोपाङनाएँ अपने मन को श्रीकृष्ण से हटाकर संसार में लगाने का प्रयास करती हैं। ऐसी उच्च भावना उच्च भक्तों की ही हो सकती है जो भगवद्-संग, भगवद्-साक्षात्कार प्राप्त कर चुके है; जिन्होंने अन्तरात्मा में, अन्तःकरण में, प्राणों में, रोम-रोम में प्रेम को धारण कर लिया है। |