गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 499

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 18

श्री हरि:
व्रजवनोकसां व्यक्तिरंग ते वृजिनहत्र्त्यलं विश्वमंगलम्।
त्यज मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां स्वजनहृद्रुजां यन्निषूदनम्।।18।।

अर्थात, हे श्यामसुन्दर! आपका यह प्राकट्य सम्पूर्ण व्रजवासी एवं वनवासी जनों के सब प्रकार के पापों का हनन करने वाला है; साथ ही, विश्व का पूर्ण मंगल करने वाला है। हमारा हृदय आपके सम्मिलन की लालसा से भरपूर है। हे मदन मोेहन! आप प्रकट होकर स्वजनों के हृदय-रोग को उपशमन करने वाली औषध हमको दें।

सदा-सर्वदा सर्वव्याप्त परात्पर परब्रह्म प्रभु की प्रकट, अप्रकट एवं प्रकटा-प्रकट ये तीन प्रकार की लीलाएँ होती हैं। अप्रकट लीला चक्षु-गोचर नहीं होती-प्रकट लीला का प्रत्यक्ष अनुभव देवता एवं मानवों को होता है। प्रकटाप्रकट वह लीला है, जिसमें प्रकट के साथ ही अप्रकट दिव्य तत्त्व भी अभिव्यक्त रहता है। अनन्तानन्त ब्रह्माण्ड के प्रत्येक अणु-अणु, परमाणु-परमाणु में परात्पर प्रभु विद्यामान हैं-

‘देस काल दिसि बिदिसिहुँ माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं ।।’[1]

इस अखण्ड, अनन्त, निर्विकार परमतत्त्व का अपरोक्ष साक्षात्कार सर्वसाधारण के लिए सम्भव नहीं; यदा-कदा ही सहस्रों-लक्षों में कोई एक ऐसा महापुरुष आविर्भूत होता है, जो इस दिव्य परमतत्त्व का अपरोक्ष अनुभव कर पाता है।
यदा-कदा सर्वेश्वर, सर्वशक्तिमान् सर्वाधिष्ठान, सर्व-व्यापी परात्पर प्रभु स्वयं ही अभिव्यक्ति लेते हैं; यह विशिष्ट अभिव्यक्ति ही अवतार है। अदृश्य, अग्राह्य, अव्यपदेश्य, अचिंत्य, अलक्षण, निर्विकार परब्रह्म भक्तानुग्रहार्थ अब-तरित होकर दृष्ट, ग्राह्य, व्यपदेश, चिन्त्य, सगुण एवं साकार सच्चिदा-नन्दघन-स्वरूप् में प्रकट हो जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मानस, बाल० 184/6

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
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