गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 6व्रजजनार्तिहन् वीर! योषितां, अर्थात, व्रजजनों के सम्पूर्ण दुःखों का हनन करने वाले हे वीर! आपकी मन्द-मन्द मुस्कान ही प्रेमीजनों के मान-मर्दन के लिये पर्याप्त है। हे सखे! हम तो आपकी दासी हैं, आप भी हमारा भजन करें, हमसे प्रेम करें; हे प्रिय! हम स्त्रियों को अपने सलोने मुख-कमल का दर्शन दें। गोपांगनाएँ औत्सुक्यातिशयात् पुनः प्रार्थना करती हैं, ‘भज सखे! भवत्किंकरीः स्म नो’ हे सखे! आप हमें भजें, स्वीकार करें अथवा हमारे सन्निकट स्थित होकर हमारे दुःखों का निराकरण करते हुए बिराजें। भजन भी दो प्रकार का होता है; एक भक्तकर्तुक भगवद्-भजन, दूसरा भगवत्कर्तृक भक्त-भजन। भजनीय के यथायोग्य ही भजन भी होता है। निर्गुण, निराकार, परात्पर, परब्रह्म, परमेश्वर, सगुण, निराकार परब्रह्म परमेश्वर तथा सगुण साकार सच्चिदानन्दघन भगवान के भजन की शैली भी भिन्न-भिन्न है। यदा-कदा भगवान् ही भक्त को भजने लगते हैं। ‘देवो यथादिपुरुषो भजते मुमुक्षून्।’ [1] आदिपुरुष भगवान् नारायण मुमुक्षुओं को भजते हैं। भक्त के इष्ट को पूर्ण करना ही भगवत्-कृत भक्त-भजन है। ‘भज’ धातु का अर्थ है सेवन। सामान्यतः यही कहा जाता है कि औषध का सेवन करो। औषध का ग्रहण ही औषध का सेवन करना है। इसी तरह, भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र द्वारा नित्य निकुंजेश्वरी, रासेश्वरी, राधारानी तथा अनन्त सौन्दर्य माधुर्य-परिपूर्ण श्री व्रजसीमन्तिनी गोपांगनाओं का आत्मीयत्वेन स्वीकार किया जाना ही भगवत्-कर्तृक भक्त-भजन है। भोक्ता द्वारा स्वीकृत होकर भी भोग्य साथक होता है; भोक्ता द्वारा अपरिगृहीत भोग्य निरर्थक है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भा. 10। 29। 31