गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 389

Prev.png

गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 14

श्रीहरि:

सुरतवर्धनं शोकनाशनं स्वरितवेणुना सुष्ठु चुम्बितम्।
इतररागविस्मारणं नृणां वितर वीर नस्तेऽधरामृतम्।।14।।[1]

अर्थात, हे वीर! आप अपने सुरत-वर्धक, शोक-नाशक, इतर-राग-विस्मारक तथा नादयुक्त वेणु सम्यकतः चुम्बित अधरामृत को हमारे लिये प्रदान करें। गोपाङनाएँ कह रही हैं, हे वीर! आप धन्वन्तरि-अवतार-तुल्य अप्रतिम भिषग्-शिरोमणि हैं अतः हमें भी उस महौषण को प्रदान करें। वह महौषध सुरत-वर्धक है। आचार्य जनों ने ‘सुरत’ शब्द का अर्थ ‘सुष्ठु रतं रमणं’ उत्कृष्ट अनुराग को बढ़ाने वाला किया है। भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र की लीलाएँ अप्राकृत होते हुए भी प्राकृतवत् भाषित होती हैं। प्राकृत में ही रागानुगा, स्वभाविकी प्रीति सम्भाव है। अप्राकृत में अलौकिकता होती है; अलौकिक में वैधी प्रीति तो हो जाती है परन्तु विधि-निषेधातीत स्वभाविकी प्रीति असम्भव है। अस्तु, प्राकृत किंवा लौकिक ग्राम्य-धर्मा, ग्राम्यवत् प्रतीयमान होने पर भी भगवत्-परिष्वंग ग्राम्यधर्मानुसार स्त्री-पुमान् का परस्पर निगूढ़ सम्बन्ध-विशेष नहीं, अपितु शुद्ध ब्रह्मसंस्पर्श है। गीता-वाक्य है,

‘बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते।।’[2]

अर्थात, शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गन्धात्मक बाह्य संस्पर्श से विनिमुक्त प्राणी ही ब्रह्म-संस्पर्शजनय आनन्द का अनुभव कर पाता है। देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि एवं अहंकार से भिन्न अजर-अमर, अनन्त, अखण्ड, स्वप्रकाश, परब्रह्मात्मा से अभेद ही ब्रह्म-परिष्वंग है। भोक्ता में भोग का विलीनिकरण ही ‘सुरत’ किंवा सम्भोग है। अनन्तकोटि -ब्रह्माण्ड-नायक परमात्मा द्वारा जीवात्मा को आत्मसात् किया जाना ही ‘एष सर्वस्वभूतस्तु’ परिष्वंग है। श्रवण, मनन, निदिध्यासन आदि द्वारा अमलात्मा परम हंस-जनों को ब्रह्म-परिष्वंग प्राप्त होता है वही दिव्य ‘परिष्वंग’ सच्चिदानन्दधन, आनन्दकन्द, परमानन्द, श्रीकृष्णचन्द्र के संस्पर्श से व्रज-सीमन्तिनी जनों को भी प्राप्त हुआ। यह लौकिकवत्-परिलक्षित परिष्वंग ही ‘सुरत’ पदवाची है। भगवात्-अधरामृत इस ‘सुरत’ का निरन्तर वर्धक है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गोपी-गीत की प्रस्तुत व्याख्या तीन चतुर्मासों में 1-10, 15-19 और 11-14 श्लोक के कर्म से की गई थी अतः इस14 श्लोक की व्याख्या सबसे अन्त में हुई। इस श्लोक में वर्णित विषयों की विस्तृत विवेचना अन्य श्लोक-प्रसंगो में हो चुकी है एतावता पुनरूक्ति दोष-निवारणार्थ ही इस श्लोक की व्याख्या अत्यन्त संक्षिप्त रूप में की जा रही है।
  2. श्री0 भ0 गी0 5/21

संबंधित लेख

गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः