गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 336

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 12

दिनपरिक्षये नीलकुन्तले-
र्वनरुहाननं विभ्रदावृतम।
घनरजस्वलं दर्शयन् मुहु
र्मनसि नः स्मरं वीर यच्छसि।।12।।

अर्थात्, हे वीर! जब दिन ढलने पर आप घर लोटते हैं तब हम देखती हैं कि गौओं के खुर से उड़ी हुई रज आपके मुखारविन्द पर घनीभूत हो रही हैं औैर आपके काले केशों की अलकें भी आपके मुखारविन्द पर यत्र-तत्र लटक रही हैं। हे प्रिय! अपने इस अतुल सौन्दर्य का दर्शन कराकर आप हमारे मन में सम्मिलन की आकांक्षा को उद्बुद्ध करते हैं।
दिन के उदित होने पर बालकृष्ण गोचरण हेतु वृन्दावन चले जाते हैं अतः व्रजबालालों को उनका दर्शन दुर्लभ हो जाता है। श्रीकृष्ण के विप्रयोग के कारण गोपाङनाओं के लिए दिन दूभर हो जाता है; एक-एक क्षण गिनकर वे दिन व्यतीत करती हैं ‘गतो यामो गतो यामो, गता यामा गतं दिनम्।’ यह तो एक ही प्रहर व्यतीत हुआ है, ऐसे लम्बे-लम्बे तीन प्रहर और व्यतीत होने पर दिन का अवसान होगा; दिन के अवसान होने पर ही प्रिय के दर्शन संभव होंगे। ‘त्रुटिर्युगायते त्वाम पश्यताम् गोपीनां’ भगवान श्रीकृष्ण के वियोग में गोपाङपाओं को त्रुटिपरिमित काल भी यृगवत् प्रतीत होता है, परन्तु-

ता स्ताः क्षपाः प्रेष्ठतमेन नीता मयैव वृन्दावन गोचरेण।
क्षणार्द्धवत्ताः पुनरंग तासां होना मया कल्पसमा बभूवुः।।[1]

ब्रह्म-रात्रियाँ भी प्रियतम श्रीकृष्ण के संग के कारण क्षणार्घवत् बीत जाती हैं।

‘क्षणं युग शतमिव यासां येन विना भवत्।’[2]

भगवान श्रीकृष्ण के विप्रयोग में क्षणार्द्ध भी शतयुग-तुल्य प्रतीत होने लगता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्री भा0 11/12/11
  2. श्री भा0 10/19/16

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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