गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 420

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 16

‘सर्वघर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।‘[1]
‘दोषो यद्यपि तस्य स्यात् सतामेतदगार्हितम्।‘[2]

‘मुमुक्षर्वै शरणमहं प्रपद्ये‘[3]

आदि भगवत्-उद्गीत है; हम आपके प्रति प्रणत है; आप प्रणत-कल्पतरु हैं; प्रणत-प्राणी आपकी अनन्त कृपा-जलनिधि से प्लावित हो अशेष कल्याण का भागी हो जाता है। हम अपने पति-पुत्र, बन्धु-बान्धव, सर्वस्व का त्यागकर आपकी शरण में आई हैं। सामान्यतः पति-पुत्र, बन्धु-बान्धव का त्याग अक्षम्य अपराध ही माना जाता है।

‘पिता रक्षति कौमारे, भर्ता रक्षति यौवने।
रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा, न स्त्री स्वातन्त्रयमर्हति ॥'[4]

कुल-परम्परागत, कुटुम्बागत धर्म का पालन तथा लज्जा का, मर्यादा का सर्वतोभावेन रक्षण करना ही नारी का सर्वोत्तम, सर्वोत्कृष्ट कर्तव्य है तथापि भगवत्-शरणागति ही परमोत्कृष्ट, सर्वतोकृष्ट है अतः तदर्थ सामान्य-धर्म की निरपेक्षता श्रेयस्कर है।

‘अकुर्वन् विहितं कर्म निन्दित च समाचरन्।
प्रसक्तश्चेन्द्रियार्थेषु प्रायश्चित्तीयते नरः।।‘ [5]

अर्थात, जो प्राणी अपने विहित कर्मों का अनुष्ठान न कर निन्दित कर्मों का आचरण करता है वह इन्द्रियार्थ में प्रसक्त होकर पाप का भागी होता है; परन्तु जो धर्माधर्म का त्याग करता है वह समाधि-निष्ठ होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्री०भ०गी०18/66
  2. वाल्मीकीय रामायण’ युद्ध 18/3
  3. श्वेता०6/18
  4. मनुस्मृति 9/3
  5. मनुस्मृति 11/44

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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