गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 16‘मुमुक्षर्वै शरणमहं प्रपद्ये‘[3] आदि भगवत्-उद्गीत है; हम आपके प्रति प्रणत है; आप प्रणत-कल्पतरु हैं; प्रणत-प्राणी आपकी अनन्त कृपा-जलनिधि से प्लावित हो अशेष कल्याण का भागी हो जाता है। हम अपने पति-पुत्र, बन्धु-बान्धव, सर्वस्व का त्यागकर आपकी शरण में आई हैं। सामान्यतः पति-पुत्र, बन्धु-बान्धव का त्याग अक्षम्य अपराध ही माना जाता है। ‘पिता रक्षति कौमारे, भर्ता रक्षति यौवने। कुल-परम्परागत, कुटुम्बागत धर्म का पालन तथा लज्जा का, मर्यादा का सर्वतोभावेन रक्षण करना ही नारी का सर्वोत्तम, सर्वोत्कृष्ट कर्तव्य है तथापि भगवत्-शरणागति ही परमोत्कृष्ट, सर्वतोकृष्ट है अतः तदर्थ सामान्य-धर्म की निरपेक्षता श्रेयस्कर है। ‘अकुर्वन् विहितं कर्म निन्दित च समाचरन्। अर्थात, जो प्राणी अपने विहित कर्मों का अनुष्ठान न कर निन्दित कर्मों का आचरण करता है वह इन्द्रियार्थ में प्रसक्त होकर पाप का भागी होता है; परन्तु जो धर्माधर्म का त्याग करता है वह समाधि-निष्ठ होता है। |