गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 421

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 16

‘त्यज धर्ममधर्म च उभे सत्यानृते त्यज।
उभे सत्यानृते त्यक्त्वा येन त्यजसि तत्तयज।।‘[1]

धर्माधर्म, सत्यासत्य के त्याग के साथ ही साथ जिस अहंकार द्वारा धर्माधर्म का, सत्यासतय का त्याग सम्भव होता है उस अहंकार का परित्याग करने पर ही प्राणी को पारमहंस्य समाधि-निष्ठा प्राप्त होती है। गोपांगनाएँ कह रही हैं, हे अच्युत! प्रपन्न-जन-रंजन आपका गुण है; आप अपने स्वरूप से सदा अप्रच्युत रहते है; अपने गुण-स्वभाव से भी सदा अविच्युत रहते है; एतावता इस आशय से कि आप स्वभावतः प्रपन्न-जन-रंजन- करेंगे ही, हम आपकी शरण आई हैं। संसार के सम्पूर्ण सूत्र, सम्पूर्ण सम्बन्धों का परित्याग कर हम आपकी ही शरण आई हैं। ‘निराश्रयाःन तिष्ठन्ति पण्डिता वनिता लताः‘ पण्डित, स्त्री एवं लता निराश्रित नहीं रह पाते; लता निराश्रित होगी तो भूमि पर फैलेगी; भूमि पर पड़ी हुई लता को लोगों का पाद-प्रहार सहना पड़ेगा। इसी तरह वनिता भी सदा पिता, पति एवं पुत्र अथवा बन्धु-बान्धवों पर आधारित होती है; परन्तु ‘पण्डिताः‘ किस प्रयोजन से कहा गया, यह हमारे समझा में नहीं आया। ‘पण्डिताःसमदर्शिनः‘ आप्तकाम, पूर्णकाम को ही पण्डित कहते हैः

‘यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंग्कल्पविर्जताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।।‘[2]

परम निष्काम को आश्रय की क्या आवश्यकता? सम्भवतः यह उक्ति राजाश्रयप्राप्त कवियों के लिए ही की गई है।

‘दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथं च हित्वा।‘[3]

हम लोगों ने दुस्त्यज आर्य-मार्ग का, स्वजनों का, बान्धवों का परित्याग कर भगवद्-शरण ग्रहण किया है। हे अच्युत! हे अन्तिकं! सर्वस्व का त्यागकर हम आपकी शरण आई हैं अतः हम भी अच्युता हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत’ शान्तिपर्व 331/94
  2. श्रीमद्० गीता 4/19
  3. श्रीमद् भा० 10/47/61

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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