गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 418

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 16

‘कोटि बिप्र बध लागंहि जाहू। आएँ सरन तजऊँ नहिं ताहू।।[1]
‘सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा। बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा।।,[2]


‘सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम।।
आनयैनं हरिश्रेष्ठ दत्तमस्याभयं मया।
विभीषणो वा सुग्रीव यदि वा रावणःस्वयम्।।‘[3]

अर्थात हे सुग्रीव! यदि विभीषण अथवा स्वयं रावण भी मित्रभाव से शरणागत हुआ हो तो उसे भी मै त्याग नहीं सकता; शरणागत प्राणी भले ही सदोष हो तथापि सर्वथा अत्याज्य है; शरणागत का ग्रहण सन्तों द्वारा अगर्हित पथ है।

‘सरनागत कहुँ जे तजहिं, निज अनहित अनुमानि।
ते नर पावँर पापमय, तिन्हहि बिलोकत हानि।।‘[4]

शरणागत को स्वीकार करना उपकार अथवा बड़प्पन नहीं है; भगवान् राघवेन्द्र स्वयं ही कह रहे हैं कि जो निज लाभ-हानि के विचार से शरणागत का त्याग कर देता है वह पातकी है; ऐसे व्यक्ति का दर्शन भी अनिष्टकारक है। तथापि हर कोई शरण्य नहीं होता; शरण्य की शरणागति सफल नहीं हुई; भगवान् राम समुद्र की शरण गए अतः उनकी शरणागति सफल नहीं हुई; विभीषण सर्व-शरण्य भगवान् राम के शरणागत हुआ, शरण्य को शरण हुआ। ‘शरण्यं शरणं गतः' [5] ‘राघवं शरणं गतः‘ [6] अतः विभीषण का सर्वतोभावेन कल्याण हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मानस 5/43/1
  2. मानस 5/38/87
  3. बाल्मीकीय रामायण’ युद्ध ० 18/33–34
  4. मानस’ 5/43
  5. वाल्मीकि रा0 युद्ध0 19/5
  6. वही, 17/16

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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