गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 16जद्यपि सम नहि राग न रोषू। गहहिं न पाप पूनु गुनू दोषू।। ‘समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।[2] अर्थात, मैं सर्वभूतों में सम हॅूं; मेंरा न कोई प्रिय है न कोई अप्रिय ही है। ‘ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।‘[3] जो भक्तिपूर्वक मुझको भजते हैं उनको भजता हॅूं। भगवान् कल्प-तरू स्वभाव है; जैसे कल्तपरु, कामधेनु, चिन्तामणि एवं अग्नि व्यक्तिविशेष के प्रति राग-द्वेषशून्य होत हुए भी अपने सन्निधान में आने वाले के ही दुख-दारिद्रय एवं शोत का प्रशमन करते हैं, वैसे ही भगवान् भी राग-द्वेषशून्य होते हुए भी प्रणत-कल्पतरू ही हैं। ‘देउ देवतरू सरिस सुभाऊ। सनमुख बिमुख न काहुहि काऊ।।[4] अकारण-करुण, करुणा-वरुणालय आत्माराम, परम निष्काम प्रभु स्वतःराग-द्वेष-शून्य हैं तथापि स्वभागवतः प्रणत-कल्तपरु हैं-यहीं जगत् के वैषम्य का मूल-मन्त्र है; जो जीव भगवदुन्मुख हुआ उसके दुःख-दारिद्रय का अन्त हो गया परन्तु जो भगवत्-विमुख हो रहा उसके दुःख-दारिद्रय भी बने रहे। ‘कूर कुटिल खल कमति कलंगों। नीच निसोल निरीस निसंकीं।। जिन्होंने भगवान् की अनन्त महिमा को सुना, जो भगवत कथामृत का पान कर भगवत्-चरणारविन्दों की शरण आए उनके सम्पूर्ण दुःख-दारिद्रय का प्रशमन हो गया। स्वयं राघवेन्द्र रामचन्द्र कह रहे हैं, |