गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 417

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 16

जद्यपि सम नहि राग न रोषू। गहहिं न पाप पूनु गुनू दोषू।।
तदपि करहिं सम विषम बिहारा। भगत अभगत हृदय अनुसारा।।[1]

‘समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।[2]

अर्थात, मैं सर्वभूतों में सम हॅूं; मेंरा न कोई प्रिय है न कोई अप्रिय ही है।

‘ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।‘[3]

जो भक्तिपूर्वक मुझको भजते हैं उनको भजता हॅूं। भगवान् कल्प-तरू स्वभाव है; जैसे कल्तपरु, कामधेनु, चिन्तामणि एवं अग्नि व्यक्तिविशेष के प्रति राग-द्वेषशून्य होत हुए भी अपने सन्निधान में आने वाले के ही दुख-दारिद्रय एवं शोत का प्रशमन करते हैं, वैसे ही भगवान् भी राग-द्वेषशून्य होते हुए भी प्रणत-कल्पतरू ही हैं।

‘देउ देवतरू सरिस सुभाऊ। सनमुख बिमुख न काहुहि काऊ।।[4]

अकारण-करुण, करुणा-वरुणालय आत्माराम, परम निष्काम प्रभु स्वतःराग-द्वेष-शून्य हैं तथापि स्वभागवतः प्रणत-कल्तपरु हैं-यहीं जगत् के वैषम्य का मूल-मन्त्र है; जो जीव भगवदुन्मुख हुआ उसके दुःख-दारिद्रय का अन्त हो गया परन्तु जो भगवत्-विमुख हो रहा उसके दुःख-दारिद्रय भी बने रहे।

‘कूर कुटिल खल कमति कलंगों। नीच निसोल निरीस निसंकीं।।
तेउ सुनि सरन सामुहें आए। सकृत प्रनामु किहें अपनाए।।‘[5]

जिन्होंने भगवान् की अनन्त महिमा को सुना, जो भगवत कथामृत का पान कर भगवत्-चरणारविन्दों की शरण आए उनके सम्पूर्ण दुःख-दारिद्रय का प्रशमन हो गया। स्वयं राघवेन्द्र रामचन्द्र कह रहे हैं,

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मानस 21/218/3’5
  2. श्रीमद० गीता 9/29
  3. वही 29
  4. मानस 2/266/8
  5. मानस 21/298/2–3

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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