गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 16एतावता, रागादि दोषों का अपक्षय हो जाने पर जीव में भी सवाथविभासनशालिता-सर्वज्ञता आ जाती है। सम्यक्ज्ञान, सम्यक्दर्शन, सम्यकचरित्र का अभ्यास करते-करते प्रतिबन्ध प्रत्यय के प्रक्षय को लेकर अनेक शास्त्रार्थ हैं। पदार्थ को सत्य मान लेने पर ज्ञान से उनकी निवृत्ति सम्भव नहीं; ज्ञान से काल्पनिक की ही निवृत्ति हो सकती है; जैसे, रज्जु-स्वरूप साक्षात्कार से सर्प, धारा, माला आदि कल्पित पदार्थों की निवृत्ति हो जाती है। एतावता, कल्पित पदार्थ के अभाव में ज्ञान से निवृत्ति संभव नहीं। ज्ञान, सत्य-बंध का निवर्तक नहीं होता तद्रर्थ कर्म अनिवार्य है। सत्य पुण्य या सत्य तपस्या से पापकर्म का प्रक्षय तो हो जाता है परन्तु पुण्यकर्म बने रह जाते है; आदि अनेक तर्क उपस्थित किये जाते है। वस्तुतः भगवत्-स्वरूप साक्षात्कार के बिना निवृत्ति सम्भव नहीं। भगवान स्वरूप से अनन्तापप्त गुण-गुणों से कदापि प्रच्युत नहीं होते, यही उनका वैशिष्ट्य है। अकारण दयालुता-भक्त-रंजकता, असीम कारूण्यास्पदता आदि भगवान के अनन्तानन्त गुण-गुण है। गोपांगनाएँ कहती हैं, हे अच्युत! हम आपकी प्रेयसीजन हैं; आपके विप्रयोगजन्य तीव्र ताप से संतप्त है; इस अनन्त दुख-समुद्र में निमग्न हो हम अत्यन्त परिश्रान्त हो रही है; यदा-कदा आपके दर्शन होते भी हैं तो हमारे पक्ष्मों के कारण विघ्न पड़ता है। आपके दर्शन से वंचित त्रुटिपरिमित काल भी हमारे लिए चतुर्युगीवत् दीर्घ हो जाता है। हम आपकी प्रेयसी-जन आपके विरह-सन्ताप में जलती रहें और आप करूणानिधि होते हुए भी दर्शन न दें, अन्तर्धान ही रहें, यह सर्वथा असंगत है। भगवान अकारण करूणा-वरूणालय है, तथापि जब तक भक्त भी अडिग, अप्रच्युत नहीं होता तब तक लोकोत्तर कल्याणगुण-गुणों से अभिषिक्त उसका स्वरूप प्रतिफलित नहीं होता। |