गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 16‘वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्य:'[2] के अनुसार सम्पूर्ण वेद का महातात्पर्य, विषय-वस्तु एकमात्र परात्पर परब्रह्म ही है-यधपि अवान्तर तात्पर्य कथंचित् अन्य वस्तु में भी प्रतीत होता है। इसी तरह, व्यवहारतः इन गोपांगनाओं के भी लौकिक, प्राकृत, पति हुए भी तथापि अनन्त ब्रह्माण्डनायक भगवान् श्रीकृष्ण ही वस्तुतः उनके पति थे। वे कह रही हैं, हे भगवन आप अच्युत हैं। अनन्त ऐश्वर्य ज्ञान, वैराग्य, कारूण्य और अनन्तानन्त लोकोत्तर कल्याण गुण-गण आप में सदा अप्रच्युत रहते हैं। यत्किंचित् उत्तम गुण सब में होते हैं परन्तु वे अच्युत नहीं रहते। ‘भगवदीय ज्ञान बिना जीव का ऐश्वर्य सदा तिरोहित रहता है। सिद्ध सादि मुक्त हैं, वे भी पहले बन्धन-कोटि में थे; ईश्वर अनादि मुक्त हैं; प्रकृतिलीन की भी उत्तरा बन्ध-कोटि है। अतः एकमात्र ईश्वर ही अच्युत है। ‘क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृषः पुरुषविशेष ईश्वरः‘[3]क्लेश, कर्म-विपाक, आशय आदिकों से जो अपरामृष्ट है, वही पुरुष-विशेष ईश्वर है। सांख्यादिकों के मतानुसार सभी पुरुष क्लेश-कर्म-विपाक- आशयादिकों से अपरामृष्ट ही रहते हैं क्योंकि असंग पुरुष में क्लेश-कर्मादिकों का कदापि संस्पर्श नहीं होता; ‘विवेकाग्रहेणास्य बन्धनं‘, विवेकाग्रह से जीवों में क्लेश-कर्म-विपाकादि होते है; ईश्वर विवेकाग्रहशून्य है अतः ईश्वर में क्लेश-कर्म-विपाकादि होते हैं; ईश्वर विवेकाग्रहशून्य है अतः ईश्वर में क्लेश-कर्म-विपाक-आशयदिक सम्भव नहीं। अन्यमतानुसार रागादि का अपक्षय हो जाने पर जीव में भी सर्वज्ञता मान्य है; प्रतिबन्ध-प्रत्यय क्षीण होने पर जीव में सर्वाथविभासनशालिता आ सकती है क्योंकि पदार्थ-बोध जीव का स्वभाव है तथापि प्रतिबन्ध के कारण उसका ज्ञान सीमित ही रहता है। जैनमतानुसार जीव ज्ञान-स्वरूप ही है; अनेक प्रकार के ज्ञान, जैसे घट-ज्ञान, पट-ज्ञान, स्पर्श-ज्ञान आदि में अनुस्यूत चैतन्य ही जीव है; अथविभास ही चैतन्य का स्वभाव है तथापि अनेक प्रकार के प्रतिबन्धों के कारण उसकी शक्ति तिरोहित हो जाती है अत: घट-पटादि-ज्ञान हेतु तत्-तत् इन्द्रिय माध्यम अनिवार्य हो जाता है। |