गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द7.आर्य क्षत्रिय -धर्म
परंतु भारतीय धर्म शास्त्र ने मनुष्य के विकासोन्मुख नैतिक और आध्यात्मिक जीवन के लिये उत्तरोत्तर बढ़ते हुए आर्दशों की व्यावहारिक आवश्यकता ही सदा अनुभव किया है। यहाँ क्षत्रिय का जो आदर्श सामने रखा गया है व चातुर्वण्य के अनुसार सामाजिक दृष्टि से रखा गया है, इसकी जो आध्यात्मिक दृष्टि आगे चलकर दिखायी गयी है उस दृष्टि से नहीं। श्रीकृष्ण यहाँ अर्जुन से वास्तव में यही कह रहे हैं, कि “ यदि तू सुख और दु:ख और कर्म के परिणाम का हिसाब लगाकर ही अपने कर्तव्य या कर्तव्य का निश्चय करना चाहता है तो मेरा यही जवाब है। मैं पहले बता चुका हूँ कि आत्मा और जगत् का जो उच्चतम ज्ञान है उस दृष्टि से तेरा क्या कर्तव्य है और अब मैंने यह भी बताया कि तेरा सामाजिक कर्तव्य और तेरा अपना नैतिक आदर्श तुझे किस ओर चलने का इशारा करता है-तू चाहे जिस भी पहलू से देख परिणाम एक ही है। परंतु, यदि तुझे अपने सामाजिक कर्तव्य और वर्णधर्म से संतोष न होता हो, और समझता हो कि उससे तू दु:ख और पाप का भागी बनेगा तो मेरा आदेश है कि तुझे किसी हीन आदर्श की ओर नीचे गिरने की अपेक्षा किसी ऊंचे आदर्श की ओर ऊपर उठना चाहिये। अहंकार का सर्वथा त्यागकर दु:ख की,लाभ-हानि की तथा ऐहिक परिणामों की परवाह न कर; बल्कि उस हेतु पर अपनी दृष्टि रख जिसकी पूर्ति में तुझे सहायक होना है और उस काम की ओर ध्यान दे जिसे मुझे सिद्ध करना है और जो भगवन्निर्दिष्ट है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 2.37
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