गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द7.आर्य क्षत्रिय -धर्म
उसका धर्म और कर्तव्य युद्ध करने में है, युद्ध से पराड्मुख होने में नहीं; यहाँ संहार करना नहीं, बल्कि संहार से हाथ खींचना ही पाप होगा। इसके बाद गुरु क्षण भर के लिये प्रस्तुत विषय से अलग होकर अर्जुन के आत्मीय स्वजनों की मृत्यु से होने वाले दु:ख संबंधी विलाप का एक ओर उत्तर देते हैं, जिसमें उसने कहा था कि इससे तो मेरा जीवन ही निस्सार हो जायेगा, क्योंकि तब जीवन के हेतु और विषय की नहीं रहेंगें। क्षत्रिय के जीवन का सच्चा उद्देश्य क्या है और किस बात में उसका वास्तविक सुख है? अपने-आपको खुश रखना, परिवार को सुखी देखना और मित्रों और नातेदारों के बीच रहते हुए आराम से और मौज से सुख-शांतिपूर्वक जीवन व्यतीत करना क्षत्रिय-जीवन का सच्चा उद्देश्य नहीं है; क्षत्रिय जीवन का सच्चा उद्देश्य है सत्य के लिये लड़ना और उसका बड़े- से-बड़ा सुख इसी बात में है कि उसे कोई ऐसा शुभ कार्य और अवसर प्राप्त हो जिसके लिये या तो वह अपना जीवन दान कर सके या विजयी होकर वीर जीवन का यश और गौरव प्राप्त कर सके। “क्षत्रिय के लिये धर्म युद्ध से बढ़कर और कोई श्रेय नहीं, ऐसे युद्ध का अवसर उसकी और स्वर्ग के खुले द्वारा की तरह आता है, तो क्षत्रिय सुखी हो जाता है। यदि तू धर्म की रक्षा के लिये यह युद्ध न करेगा तो तू स्वधर्म और कीर्ति का परित्याग करके पाप का भागी होगा।“[1] यदि वह ऐसे अवसर पर लड़ने से इंकार करेगा तो अपमानित होगा, लोग उसे कायर और दुर्बल कहेंगे और उसके क्षत्रियनाम की मर्यादा नष्ट होगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 5.5
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