गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 17.देव और असुर
जो जीव ईश्वर में निवास करता है वह इस आध्यात्मिक संकल्प के द्वारा कार्य करता है न कि बंधनग्रस्त मन के सामान्य संकल्प के द्वाराः उसकी समस्त क्रिया-प्रवृत्ति इस आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा प्रवाहित होती है, प्रकृति के रजोगुण के द्वारा नहीं, इसका कारण ठीक यही है कि वह अब और उस निम्नतर गति में निवास नहीं करता, जिसके साथ यह विकृति संबंध रखती है, बल्कि दिव्य प्रकृति में गति के विशुद्ध और पूर्ण मर्म पर पहुँच गया है। और फिर प्रकृति की यह जड़ता, यह तमस पराकाष्ठा को पहुँचने पर उसकी क्रिया को मशीन के अंध परिचालन जैसा रूप दे देता है, एक ऐसे यांत्रिक वेग का रूप दे देता है जो उस गरारी के सिवा और किसी चीज से सचेतन नहीं होता जिसमें इसकी गति शुरू करा दी जाती है, और यहाँ तक कि जो गति का नियम तक नहीं जानता,-यह समस्त अभस्त क्रिया के विलोप को मृत्यु एवं विघटन में परिणत कर देता तथा मन के अंदर निष्क्रियता एवं आन की शक्ति बन जाता है,-इस प्रकार के इस तमस के पीछे क्या चीज है? यह तमस एक प्रकार का अज्ञानन्धकार है, जो यह कहा जा सकता है कि, आत्मा के शांति और विश्रांतिरूपी शाश्वत तत्त्व को विकृत करके उसे शक्ति एवं ज्ञानसंबंधी निष्क्रियता में परिणत कर देता है। पर भगवान की वह विश्रांति ऐसी विश्रांति है जिसे वे कभी नहीं खोते, तब भी नहीं जबकि वे कर्म करते हैं, वह एक ऐसी शाश्वत विश्रांति है जो उनके ज्ञान के समग्र व्यापार को तथा उनके सर्जन-संकल्प की शक्ति को वहाँ और यहाँ दोनों जगह धारण करती है, वहाँ उसकी अपनी अनंतताओं में तथा यहाँ उसकी क्रिया और आत्म-संवित की प्रतीयमान अपूर्णता में। भगवान की शांति न तो शक्ति का विघटन है और न ही शून्य निष्क्रियता; चाहे ‘शक्ति’ यत्र-तत्र-सर्वत्र कुछ समय के लिये सक्रिय रूप से जानना तथा सृजन करना बंद कर दे तो भी भगवान की यह शांति उस सबके, जिसे ‘अनंत’ ने जाना तथा किया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तपस्, चित्-शक्ति
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