गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 17.देव और असुर
परंतु ऐसा तभी दिखायी देता है जब हम विश्लेषक मन के कठोर तार्किक विरोधी के साथ गठबंधन कर लेते हैं, तब नहीं जब हम आत्मा के स्वरूप, तथा प्रकृति के अंदर विद्यमान अध्यात्म-सत्ता पर मुक्त एवं सूक्ष्म रूप से दृष्टिपात करते हैं। जो शक्ति जगत को चला रही है वह वास्तव में प्रकृति के गुण नहीं हैं, ये गुण तो हमारी साधरण प्रकृति का केवल निम्न पक्ष हैं, उसका एक यंत्र मात्र हैं। जगत की वास्तवकि चालक-शक्ति एक आध्यात्मिक भगवत्संकल्प है जो इस समय इन निम्न अवस्थाओं का प्रयोग कर रहा है, पर जो स्वयं मानवीय संकल्प की भाँति गुणों के द्वारा सीमाबद्ध एवं नियंत्रित नहीं होता, उनका यंत्र नहीं बन जाता। निःसंदेह, क्योंकि इन गुणों की क्रिया इतनी सार्वभौम है, इनका मूल परमात्मा की शक्ति के भीतर निहित किसी तत्त्व में ही होना चाहिये; दिव्य संकल्प-बल में ऐसी शक्तियां अवश्य होनी चाहिये जिनसे प्रकृति के ये गुण उदभूत होते हैं। कारण, निम्नतर सामान्य प्रकृति की प्रत्येक वस्तु पुरुषोत्तम की सत्ता की उच्चतर अध्यात्म-शक्ति से ही निःसृत हुई है, मत्त: प्रवर्तते; वह आध्यात्मिक मूल से रहित एक सर्वथा नीवन वस्तु के रूप में उद्भूत नहीं होती। आत्मा की मूल शक्ति में कोई ऐसी चीज अवश्य है जिससे हमारी प्रकृति का सात्त्विक प्रकाश एवं एवं सुख, उसकी राजसिक गति तथा तामसिक जड़ता निःसृत हुई और जिसके ये अपूर्ण या हीन रूप हैं। किंतु इन स्त्रोतों के जिस अपूर्ण एवं विकृत रूप के अंदर हम निवास करते हैं उसके परे जब हम एक बार इनके विशुद्ध रूप तक पहुँचते हैं तो हमें पता चलता है कि, ज्यों ही हम आत्मा के अंदर निवास करने लगते हैं त्यों ही, ये गतियां एक सर्वथा भिन्न रूप धारण कर लेती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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