गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
10.विश्वरूपदर्शन
ये काल तथा विश्व-पुरुष के रूप में व्यक्त कालातीत ही हैं जिनसे कर्म का आदेश प्रादुर्भूत हुआ है। कारण, निश्चय ही जब भगवान् यह कहते हैं कि ‘‘मैं भूतों का क्षय करने वाला काल हूं’’, तब उनका अभिप्राय यह नहीं है कि वे केवल काल-पुरुष हैं या काल-पुरुष का संपूर्ण सारतत्त्व संहार ही है, वरन् यह कि उनके कार्यों की वर्तमान प्रवृत्ति यही है। संहार सदा ही सृष्टि के साथ कदम मिलाकर चलने वाला या पर्याय से आने वाला तत्त्व है और संहार करके तथा नये सिरे से रचना करके ही जीवन के स्वामी जगत के प्रतिपालन का अपना सुदीर्घ कार्य संपन्न करते हैं और फिर, संहार प्रगति की पहली शर्त है। आंतरिक द्रष्टि से, जो आदमी अपनी निम्नतर स्व-रचनाओं को नहीं मिटाता वह महत्तर जीवन की ओर नहीं उठ सकता। बाहरी और से भी, जो राष्ट्र समाज या जाति अपने जीवन के अतीत रूपों को नष्ट और परिवर्तित करने से चिरकाल तक कतराती रहती है वह स्वयं ही नष्ट हो जाती है, गल-सड़कर ध्वस्त हो जाती है और उसके ध्वंसावशेष में से अन्य राष्ट्र समाज और जातियां निर्मित होती हैं। पुराने महाकाय जीवों का संहार करके ही मनुष्य ने भूतल पर अपने लिये स्थान बनाया। असुरों के विनाश के द्वारा ही देवता संसार में दिव्य नियम के चक्र की अविच्छिन्नता के साथ रक्षा करते हैं। जो कोई भी युद्ध और संहार के इस नियम से छुटकारा पाने के लिये समय से पूर्व यत्न करता है वह विश्व-पुरुष के महत्तर संकल्प के विरुद्ध एक व्यर्थ की चेष्टा करता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11.32-34
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