गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
10.विश्वरूपदर्शन
भगवान् उत्तर देते हैं कि ‘संसार ही मेरे कार्यों का मूल संकल्प है जिसे लेकर मैं यहाँ कुरुक्षेत्र के इस मैदान में, धर्म को कार्यान्वित करने के इस क्षेत्र में, मानव कर्म के इस क्षेत्र में खडा़ हूं, धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्रे ‘इस वर्णनात्मक पदावलि का प्रतीकात्मक अनुवाद हम ‘मानव के कर्मक्षेत्र में ‘ऐसा कर सकते हैं; यह एक विश्वव्यापी संहार है जो कालपुरुष की प्रक्रिया में आ उपस्थित हुआ है। ‘मेरा एक भविष्यदर्शी प्रयोजन है जो अमौघ रूप से चरितार्थ होता है और किसी मनुष्य का उसमें भाग लेना या न लेना उसे रोक नहीं सकता, बदल या पलट नहीं सकता; कोई भी कार्य मनुष्य के द्वारा इस भूतल पर किये जा सकने से पहले मेरे द्वारा अपने संकल्प की सनातन दृष्टि में संपन्न किया जाता है। काल के रूप में मुझे पुरानी रचनाओं को नष्ट करना तथा नये, महान् और श्रेष्ठ राज्य का निर्माण करना है। तुझे दिव्य शक्ति तथा प्रज्ञा के मानवीय यंत्र के रूप में इस युद्ध में, जिसे तू रोक नहीं सकता, सत्य के लिये लड़ना तथा इसके विरोधियों का वध करना और उन्हें जीतना है। तुझे, प्रकृति के अंदर विद्यमान मानव आत्मा को भी, प्रकृति में मेरे दिये हुए फल का, सत्य और न्याय के साम्राज्य का उपभोग करना होगा। तेरे लिये अपनी आत्मा में ईश्वर के साथ एक होना, उनका आदेश प्राप्त करना, उनकी इच्छा के अनुसार कार्य करना, शांत भाव से एक परम प्रयोजन को जगत में पूर्ण हुए देखना ही पर्याप्त होना चाहिये। ‘‘मैं लोकों का क्षय करने वाला उत्थित और प्रवृद्ध काल हूँ जिसकी कार्यप्रवृत्ति यहाँ राष्ट्रों का संहार करना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11.31
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