गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
10.विश्वरूपदर्शन
जो कुछ भी अशुभ या भीषण प्रतीत होता है उस सबकी जिम्मेवारी एक अर्द्ध-सर्वशक्तिमान् शैतान के कंधों पर डाल देना या उसे प्रकृति का अंग कहकर एक ओर रख देना और इस प्रकार जगत-प्रकृति तथा ईश्वर-प्रकृति में अलंध्य विरोध खड़ा कर देना, मानों प्रकृति ईश्वर से स्वतंत्र हो, अथवा उस सबकी जिम्मेदारी मनुष्य तथा उसके पापों पर लाद देना मानों इस जगत की रचना में उसकी आवाज का बड़ा भारी महत्त्व हो या वह ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध कोई एक भी चीज रच सकता है,-ये सब ऐसी युक्तियां हैं जो भद्दे ढंग से सांत्वना देनेवाली हैं तथा भारत की धार्मिक विचारधारा ने जिनकी शरण कभी नहीं ली। हमें सत्य पर, आमने-सामने, साहस के साथ दृष्टिपात करना होगा और देखना होगा कि परमेश्वर ने ही, और किसी ने नहीं, अपनी सत्ता के अंदर इस जगत का निर्माण किया है और उन्होंने इसे इस प्रकार का ही बनाया है। हमें देखना होगा कि अपनी संतानों को निगलने वाली प्रकृति, प्राणियों के जीवनों को हड़प जाने वाला काल, अटल तथा सार्वभौम मृत्यु तथा मनुष्य और प्रकृति में निहित हिंसक रुद्र शक्तियां भी अपने एक अन्यतम वैश्व रूप में, वह परमाच्च ईश्वर ही हैं। हमें देखना होगा कि वे उदार तथा मुक्तहस्त स्रष्टा तथा सर्वसहायक, शक्तिमान् और दयालु जागत्पालक ईश्वर ही भक्षक तथा संहारक ईश्वर भी हैं। दुःख-ताप और अशिव की शय्या पर शिकंजो से कसे हुए हम जो यंत्रणा भोग रहे हैं वह भी उतना ही उनका स्पर्श है जितना कि सुख-आनंद माधुर्य। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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