गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
10.विश्वरूपदर्शन
दुर्बल मानव हृदय केवल सुन्दर तथा सुखद सत्यों को ही चाहता है अथवा उनके अभाव में मनोहर गाथाओं को ही पसंद करता है; वह सत्य को उसकी समग्रता में नहीं प्राप्त करना चाहता, क्योंकि सत्य में ऐसा बहुत कुछ है जो स्पष्ट, मनोहर तथा सुखद नहीं है, इतना ही नहीं, बल्कि जिसे समझना कठिन है तथा सहन करना और भी कठिन। कच्चा धर्मवादी, उथला आशवादी विचारक, भावुक आदर्शवादी, अपने भावों तथा संवेदनों का दास मनुष्य विश्व-सत्ता के कठोरतर परिणामों तथा कर्कशतर और उग्रतर रूपों की खींचतान कर उनसे बचने में एकमत हैं। छिपने-बचने के इस सर्वसाधारण खेल में भाग ने लेने के कारण भारतीय धर्म की अज्ञानपूर्वक निंदा की गयी है, क्योंकि इसके विपरीत, उसने परमेश्वर के रौद्र, भयानक तथा मुधर और सुन्दर प्रतीकों को साथ-साथ निर्मित किया और अपने सामने रखा है। क्योंकि यह उसके सुदीर्घ चिंतन तथा आध्यात्मिक अनुभव की गंभीरता तथा विशालता ही है जो उसे इन निस्सार जुगुप्साओं को अनुभव करने या इनका समर्थन करने से रोकती है। भारतीय आध्यात्मिकता को मालूम है कि ईश्वर प्रेम, शांति तथा अचल नित्यता हैं,-गीता, जो इन उग्र रूपों को हमारे सामने रखती है, उन परमेश्वर की बात कहती है जो सर्वभूतों के सखा और प्रेमी के रूप में इनके अंदर अपने को मूर्तिमंत करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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