गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द22.त्रैगुणातीत्य
प्राकृत सत्ता, मन-प्राण-शरीर अब भी रहते हैं, प्रकृति अब भी कर्म करती है; पर आंतरिक सत्ता अपने-आपको इनके साथ तदाकार नहीं करती, न यह उस समय सुखी या दुःखी ही होती है जबकि प्राकृत सत्ता में गुणों की क्रिया हो रही होती है। अब वह जीव स्थिर, मुक्त, सर्वसाक्षी अक्षर ब्रह्म हो जाता है। क्या यही परम पद, परम प्राप्तव्य, उत्तम रहस्य है? नहीं, यह नहीं हो सकता, क्योंकि यह मिश्रित या विभक्त अवस्था है, पूर्ण समन्वित पद नहीं; यह द्विविध सत्ता है, एकीभूत स्वरूप नहीं, यहाँ आत्मा में तो मुक्त है पर प्रकृति में अपूर्णता है। यह केवल एक अवस्था हो सकती है। तब इसके परे क्या है? एक समाधान उन संन्यासवादियों का है जो प्रकृति का, कर्म का सर्वथा त्याग कर देते हैं, कम-से-कम कर्म का यथासंभव त्याग कर देते हैं ताकि विशुद्ध अविभक्त मुक्ति-स्थिति प्राप्त हो; किंतु गीता इस समाधन को स्वीकार तो करती है पर इसे उत्तम नही मानती। गीता भी कर्मों के संन्यास पर जोर देती है सर्वकर्माणि संन्यस्य, पर यह ब्रह्म को आंतरिक अर्पण है। क्षर भाव में बह्म प्रकृति के कर्म को पूरा-पूरा सहारा देता है, और अक्षर भाव में ब्रह्म प्रकृति के कर्म को सहारा देते हुए भी उससे अलग रहता है, अपने मुक्त स्वरूप को कायम रखता है; अक्षर ब्रह्म के साथ युक्त व्यष्टि-पुरुष मुक्त और प्रकृति से अलग रहता है, फिर भी क्षर में स्थित ब्रह्म के साथ युक्त रहकर वह कर्म को सहारा देता है, पर उससे लिप्त नहीं होता। यह द्विविध भाव उत्तम प्रकार से तब क्रियान्वित होता है जब व्यक्ति यह देख लेता है कि ये दोनों एक पुरुषोत्तम के ही दो पहलू हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ न कर्तृव्यं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः। न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।5-14॥
- ↑ 5.15
- ↑ 5.15
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