गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द22.त्रैगुणातीत्य
वह सोचता है कि सब कुछ वह और दूसरे लोग ही कर रहे हैं; वह यह नहीं देख पाता कि सारा कर्म प्रकृति कर रही है और अज्ञान तथा आसक्ति के कारण प्रकृति के कर्मों को वह गलत समझता और विकृत करता है। गुणों ने उसे अपना गुलाम बना रखा है कभी तो तमोगुण उसे जड़ता में धर दबाता है, कभी रजोगुण की जोरदार आंधी उसे उड़ा ले जाती है और कभी सत्त्वगुण का आंशिक प्रकाश उसे बांध रखता है और वह यह नहीं देख पाता कि वह अपने प्राकृत मन से अलग है और गुणों के द्वारा केवल प्रकृत मन में फेर-फार होता रहता है। इसीलिये सुख और दुःख,हर्ष और शोक, काम और क्रोध, असक्ति ओर जुगुप्सा उसे अपने वश में कर लेते हैं, उसे जरा भी स्वाधीनता नहीं रहती। मुक्त होने के लिये उसे प्रकृति के कर्म से पीछे हटकर अक्षर पुरुष की स्थिति में आ जाना होगा; तब वह त्रिगुणातीत होगा। अपने-आपको अक्षर, अविकार्य, अपरिवर्तनीय पुरुष जानकर वह अपने-आपको अक्षर, निर्गुण आत्मा जानेगा और प्रकृति के कर्म को स्थिर शांति के साथ देखेगा तथा उसे निष्पक्षभाव से सहारा देगा, पर खुद स्थिर, उदासीन, अलिप्त, अचल, विशुद्ध तथा सब प्राणियों के साथ उनकी आत्मा में एकीभूत रहेगा, प्रकृति और उसके कर्म के साथ नहीं। यह आत्मा यद्यपि अपनी उपस्थिति से प्रकृति को कर्म करने का अधिकार देती है, |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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