गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द22.त्रैगुणातीत्य
यह क्रिया गुणों के अहमात्मक रूप और प्रितिक्रियाओं से ऊपर उठी रहती है। क्योंकि उसने अपनी संपूर्ण सत्ता को पुरुषोत्तम में एकीभूत कर लिया है, वह भागवत सत्ता और भूतभाव की उच्चतम दिव्य प्रकृति ‘मद्भावम्’ को प्राप्त हो गया है, और अपने मन और चित्त को भी भगवान् के साथ एक कर लिया है, यह रूपांतर हो प्रकृति का परम विकास और दिव्य जन्म की परम सिद्धि है, यही उत्तमं रहस्यम् है। यह संसिद्धि जब प्राप्त हो जाती है तब पुरुष अपने-आपको प्रकृति का स्वामी जानता है और, भागवत ज्योति की एक ज्योति तथा भगवदिच्छा की ही एक इच्छा बनकर, वह अपनी प्रकृति की क्रियाओं को दिव्य कर्म में रूपान्तरित करने में समर्थ होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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