गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द20.समत्व और ज्ञान
निरंहकार होकर लोक-संग्रह के लिये कर्म करना, लोगों को भगवन्मार्ग पर कायम रखने और चलाने के लिये कर्म करना वह धर्म है जो भगवान् के साथ, विश्व-पुरुष के साथ अपनी अंतरात्मा की एकता से सवभावतः उत्पन्न होता है, क्योंकि विश्व के अखिल कर्म का संपूर्ण अभिप्राय और लक्ष्य यही है। इस कर्म का सब जीवों के साथ, यहाँ तक कि हमारे विरोधी और शत्रु बनकर आने वालों के साथ भी हमारी एकता से कोई विरोध नहीं। कारण भगवान् का जो लक्ष्य है वही उनका भी लक्ष्य है, क्योंकि वही सबका छिपा हुआ लक्ष्य है, उन जीवों का भी जिनके बहिर्मुख मन अज्ञान और अहंकार के मारे इस पथ से च्युत होकर भटका करते हैं और अपनी अंत:प्रेरणा का प्रतिरोध किया करते हैं। उनका विरोध करना और उन्हें हराना ही उनकी सबसे बड़ी बाहरी सेवा है। इस दृष्टि के द्वारा गीता उस अपूर्ण सिद्धांत का निराकरण कर देती है जो समता की एक ऐसी शिक्षा से उत्पन्न हो सकता था जिसमें अव्यावहारिक रूप से समस्त संबंधों की अवहेलना की जाती है और जो उस दुर्बलकारी प्रेम की शिक्षा से उत्पन्न हो सकता था जिसके मूल में ज्ञान का सर्वथा अभाव होता है। परंतु, वह असली तत्त्व को अक्षुण्ण रखती है। वह अंतरात्मा के लिये सबके साथ एकत्व है, हृदय के लिये अचल विश्व-प्रेम, सहानुभूति और करुणा है; परन्तु हाथों के लिये नैर्व्यक्तिक रूप से हित-साधन करने का स्वातंत्र्य, ऐसा हित-साधन नहीं जो भगवान् की योजना का कोई विचार न करे या उसके विरुद्ध जाकर इस या उस व्यक्ति के सुख-साधन में लग जाये, बल्कि ऐसा हित-साधन जो सृष्टि के हेतु का सहायक हो, जिससे मनुष्यों को अधिकाधिक सुख और श्रेय प्राप्त हो,सब भूतों का संपूर्ण कल्याण हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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