गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द20.समत्व और ज्ञान
वह हर फल को चाहे अच्छा हो या बुरा, प्रिय हो या अप्रिय, शुभ हो या अशुभ, यह जानकर स्वीकार करता है कि वह कर्मों के प्रभु भगवान् का है और अंत में यह अवस्था हो जाती है कि शोक और दुःख केवल सहन ही नहीं किये जाते, बल्कि उन्हें निर्वासित कर दिया जाता है और चित्त के अंदर पूर्ण समता प्रतिष्ठित हो जाती है। उपकरण में तब वैयक्तिक इच्छा या संकल्प का अरोप नहीं होता; यह दीख पड़ता है कि जो कुछ हो रहा है वह सब विराट् पुरुष की सर्वज्ञ पूर्वदृष्टि और उनकी सर्वसमर्थ अमोघ शक्ति में पहले ही क्रियान्वित हो चुका है और मनुष्य का अहंकार भगवान् के संकल्प के कार्यों को बदल नहीं सकता। इसलिये अंतिम रूख वही होगा जो अर्जुन को आगे चलकर बताया गया है, ‘‘सब कुछ मेरे द्वारा मेरी दिव्य इच्छा और पूर्वज्ञान में पहले ही किया जा चुका है, तू, हे अर्जुन, केवल निमित्त बन जा,निमित्तमात्र भव सव्यसाचिन् [1] इस रूख का अंतिम परिणाम यह होगा कि वैयक्तिक संकल्प भगवान् के संकल्प के साथ पूर्ण रूप से एक हो जायेगा, जीव के अंदर ज्ञान की वृद्धि होने लगेगी और उसकी प्रकृति, जो उपकरणमात्र है, सर्वथा निर्दोष होकर भागवत शक्ति और ज्ञान के अनुकूल बन जायेगी। परातपर पुरुष, विराट् पुरुष और व्यष्टि पुरुष को इस परम एकता की संतुलित अवस्था में अंतःकरण के अंदर आत्म-समर्पण से प्राप्त पूर्ण और निरपेक्ष समता रहेगा, मन भागवत प्रकाश और शक्ति का निष्क्रिय स्त्रोतमार्ग हो जायेगा और हमारी सक्रिय सत्ता जगत् में दिव्य ज्योति और शक्ति के कार्य के लिये एक बलशाली अमोघ यंत्र हो जायेगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11.33
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