गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द6.मनुष्य और जीवन-संग्राम
जो अपनी माया, प्रकृति या शक्ति के दास नहीं, प्रभु हैं, जिनकी जगत् परिकल्पना या योजना का बनाया हुआ कोई भी जीवजंतु, मानव-दानव इधर-उधर या उलट-पलट नहीं कर सकता जो अपनी सृष्टि या अभिव्यक्ति के किसी भाग के उत्तरदायित्व को अपने सृष्ट या अभिव्यक्त प्राणियों के ऊपर लादकर स्वयं उससे बरी होने की कोई जरूरत नहीं रखते- यदि हम ऐसा मानते हैं- तब आरंभ से ही मानव-प्राणी को एक महान् और महाकठिन श्रद्धा धारण करके ही आगे बढ़ना होगा। मानव अपने-आपको एक ऐसे जगत् में पाता जहाँ ऊपर से देखने में ऐसा लगता है कि लड़ाकू शक्तियों ने एक भीषण विश्रृंखला कर रखी है, बड़ी-बड़ी अंधकार की शक्तियों का संग्राम छिड़ा हुआ है, जहाँ का जीवन सतत परिवर्तन और मृत्यु के द्वारा ही टिका हुआ है, और व्यथा, यंत्रणा, अमंगल और विनाश की विभिषिका द्वारा चारों ओर से घिरा हुआ है। ऐसे जगत् के अंदर उसे सर्वव्यापी ईश्वर को देखना और इस बात से सचेतन होना होगा कि इस पहेली का कोई हल अवश्य है और यह कि जिस अज्ञान में वह इस समय वास करता है उसके परे कोई ऐसा ज्ञान है जो इन विरोधों को मिटाता है। तब, मनुष्य जीवन की उसे इस श्रद्धा और विश्वास के आधार पर खड़ा होना होगा कि, “तू मुझे मार भी डाले, तो भी मैं भरोसा न छोड़ूँगा।“ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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