गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द6.मनुष्य और जीवन-संग्राम
तब, मनुष्य जीवन की वास्तविकता का जहाँ तक संबंध है, हमें उसे संघर्ष और युद्ध के पहलू को मानना होगा जिसकी भीषणता बढ़ते-बढ़ते कुरुक्षेत्र के जैसे महासंकट तक जा पहुँचती है। गीता जैसा कि हम देख आये हैं, परिवर्तन और संकट के एक ऐसे काल को अपना आधार बनाती है जो मानव जाति के इतिहास में पुनः-पुनः आया करता है और इस काल में बड़ी शक्तियां किसी भीषण बौद्धिक, सामाजिक, नैतिक, धार्मिक, राजनीतिक ध्वंस और पुनर्निमाण के लिये एक-दूसरे से टकराती हैं और मनुष्य की वास्तविक मनोवैज्ञानिक और सामाजिक अवस्था में साधारणतया ये शक्तियां संघर्ष, युद्ध और क्रांति के भीषण भौतिक आंदोलन में अपनी पराकाष्ठा को पहुँचाती हैं। गीता का प्रारंभ की इस मान्यता से नया होता है कि ऐसे भीषण क्रांतिकारी प्रसंग प्रकृति को आवश्यक होते हैं, केवल उनक नैतिक पहलू ही नहीं अर्थात् धर्म और अधर्म में, शुभ के स्थापित होते हुए विधान और उसक प्रगति को रोकने वाली शक्तियों में युद्ध होता है वहीं बल्कि उनका भौतिक अंग भी अर्थात् शुभाशुभ शक्तियों के प्रतिनिधि स्वरूप जो मनुष्य हैं उनके बीच सशस्त्र संग्राम अथवा अन्य किसी प्रकार का प्रचंड शारीरिक युद्ध भी आवश्यक होता है। यहाँ हमें स्मरण रखना होगा कि गीता कि रचना ऐसे समय में हुई थी कि जब युद्ध मानव गति विधि का आज से भी अधिक आवश्यक अंग था और उसके बहिष्कार का विचार तक आकाश-कुसुम जैसा होता है। मनुष्यों में विश्वव्यापी शांति और पूर्ण सद्भाव को स्थापित करने का उपदेश- क्योंकि विश्वव्यापी शांति और पूर्ण सद्भाव के बिना सच्ची और स्थायी शांति नहीं हो सकती- हमारी उन्नति के लिए ऐतिहासिक काल में एक क्षण के लिये भी मानव जीवन को अधिकृत नहीं कर सका है, क्योंकि जाति की नैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक और आध्यात्मिक अवस्था, इसके लिए तैयार नहीं थी और विकासात्मक प्रकृति की अभी तक जो हालत थी उसके कारण वह इस बात की इजाजत नहीं दे सकती थी कि मानव-जाति ऐसी उच्चतर स्थिति के लिये एकाएक तैयार कर ली जाये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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