श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
ग्यारहवाँ अध्याय
पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्विनौ मरूतस्तथा ।
बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत ॥6॥
अर्जुन! आदित्यों, वसुओं, रुद्रों, अश्विनीकुमारों और मरुतों को तू देख और बहुत-से पूर्व में (इससे पहले) न देखे हुए आश्चर्यमय रूपों को देख।। 6।।
मम एकस्मिन् रूपे पश्च आदित्यान् द्वादश, वसून् अष्टौ, रुद्रान् एकादश, अश्विनौ द्वौ, मरुतः च एकोनपञ्चाशतम् प्रदर्शनार्थमिदम्; इह जगति प्रत्यक्ष दृष्टानि शास्त्रदृष्टानि च यानि वस्तूनि तानि सर्वाणि अन्यानि अपि सर्वेषु लोकेषु सर्वेषु च शास्त्रेषु अदृष्टपूर्वाणि बहूनि आश्चर्याणि पश्य।। 6।।
मेरे एक ही रूप में बाहर आदित्यों को, आठ वसुओं को, ग्यारह रुद्रों को, दोनों अश्विनीकुमारों को, और उनचास मरुतों देख। यह कहना केवल उपलक्षण के लिये है। अभिप्राय यह है कि इस लोक में प्रत्यक्ष देखे हुए और शास्त्रों के द्वारा देखे हुए जो पदार्थ हैं, उन सबको तथा सब लोकों में एवं सब शास्त्रों में जो पहले देखने में नहीं आये, ऐसे बहुत-से अन्यान्य आश्चर्यों को भी तू देख।। 6।।
इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् ।
मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसि ॥7॥
गुडाकेश! तू आज यहाँ मेरे शरीर के एक देश में स्थित चराचर के सहित समूचे जगत् को तथा और भी जो कुछ देखना चाहता है (उसे) देख।। 7।।
इह मम एकस्मिन् देहे तत्र अपि एकस्थम् एकदेशस्थं सचराचरं कृत्स्नं जगत् पश्य। यत् च अन्यद् द्रष्टुम् इच्छसि तद् अपि एकदेहैकदेशे एव पश्य।। 7।।
इस मेरे एक शरीर में, वहाँ भी एक देश में स्थित चराचर सहित समूचे जगत् को देख। और भी जो कुछ देखना चाहता है, वह भी एक शरीर के एक देश में ही देख ले।। 7।।
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