श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
बारहवाँ अध्याय
भक्तियोगनिष्ठानां प्राप्यभूतस्य परस्य ब्रह्मणो भगवतो नारायणस्य निरंकुशशैश्वर्य साक्षात्कर्तुकामाय अर्जुनाय अनवधिकातिशयकारुण्यौदार्यसौशील्यादिगुणसागरेण सत्यसंकल्पेन भगवता स्वैश्वर्य यथावद् अवस्थितं दर्शितम्। उक्तं च तत्त्वतो भगवज्ज्ञानदर्शनप्राप्तीनाम् ऐकान्ति कात्यन्तिक भगवद्भक्त्यैकलभ्यत्वम्।
भक्तियोग में निष्ठा रखने वाले भक्तों को प्राप्त होने योग्य परब्रह्म भगवान नारायण के निरंकुश (सर्वतन्त्रस्वतन्त्र) ऐश्वर्य के दर्शन की इच्छा वाले अर्जुन को अपार अतिशय कारुण्य, औदार्य सौशील्य आदि गुणों के समुद्र, सत्य संकल्प भगवान श्रीकृष्ण ने अपना यथार्थ रूप में स्थित ऐश्वर्य दिखलाया। और यह भी कहा गया है। कि तत्त्व से भगवान का ज्ञान, उनके दर्शन और उनकी प्राप्ति ये सब केवल एकमात्र अनन्य और आत्यन्तिक भक्ति से ही हो सकते हैं।
अनन्तरम् आत्मप्राप्तिसाधनभूताद् आत्मोपासनाद् भक्तिरूपस्य भगव दुपासनस्य स्वसाध्यनिष्पादने शैघ्यात् सुखोपादानत्वात् च श्रैष्ठयम्; भगवदुपासनोपायः च तदशक्तस्य अक्षर निष्ठता तदपेक्षिताः च उच्यन्ते।
अब यह कहते हैं कि आत्मप्राप्ति के साधनरूप उपासना अपने साध्य को शीघ्र सिद्ध करने वाली है और सुख पूर्वक की जा सकती है, अतएव श्रेष्ठ है; तथा भक्तियोग में असमर्थ अधिकारी के लिये भगवदुपासना की साधन रूपा अक्षरनिष्ठता (आत्मोपासना) तथा उसके लिये अपेक्षित साधन भी श्रेष्ठ हैं।
भगवदुपासनस्य प्राप्यभूतोपास्य श्रैष्ठ्यात्, श्रैष्ठ्याम् तु ‘योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना। श्रद्धावान् भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः।।’ [1] इत्यत्र उक्तम्।
भगवान की उपासना के साध्य उपास्य देव परमेश्वर श्रेष्ठ हैं, अतः भक्त् ही सर्वश्रेष्ठ है। यह बात छठे अध्याय के अन्त में इस प्रकार कही गयी है-‘योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना। श्रद्धावान् भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः।।’
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