श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य पृ. 396

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
सोलहवाँ अध्याय

अतीतेन अध्यायत्रयेण प्रकृति पुरुषयोः विविक्तयोः संसृष्टयोः च याथात्म्यं तत्संसर्गवियोगयोः च गुणसंगतद्विपर्ययहेतुकत्वम्, सर्वप्रकारेण अवस्थितयोः प्रकृतिपुरुषयोः भगवद्विभूतित्वम्, विभूतिमतो भगवतो विभूतिभूताद् अचिद्वस्तुनः चिद्वस्तुनः च बद्धमुक्तोभयरूपाद् अव्ययत्वव्यापनभरणस्वाम्यैः अर्थान्तरतया पुरुषोत्तमत्वेन याथात्म्यं च वर्णितम्।

इससे पहले तीन अध्यायों में संसर्ग रहित और संसर्गयुक्त प्रकृति और पुरुष का यथार्थ स्वरूप बतलाया गया तथा यह भी कहा गया कि उनके संसर्ग में गुणों का संग कारण है और संसर्गरहित होने में गुणों के संग का अभाव कारण है। तथा सब प्रकार से स्थित प्रकृति और पुरुष दोनों ही भगवान् की विभूतियाँ हैं। अपनी विभूतिरूप अचेतन वस्तु से एवं बद्ध और मुक्त दोनों प्रकार के चेतन आत्माओं से उन विभूतियों का स्वामी भगवान् अव्यय, व्यापक, भर्ता और स्वामी होने के कारण भिन्न वस्तु हैं; इस प्रकार भगवान् को पुरुषोत्तम बतलाकर उनके यथार्थ स्वरूप का भी वर्णन किया गया है।

अनन्तरम् उक्तस्य अर्थस्य स्थेम्ने शास्त्रवश्यतां वक्तुं शास्त्रवश्यतद्विपरीतयोः देवासुरसर्गयोः विभागं श्रीभगवान् उवाच-

अभी (पंद्रहवे अध्याय में) कहे हुए अभिप्राय को दृढ़ करने के लिये शास्त्र की अनुकूलता आवश्यक है, यह बतलाने के लिये क्रमशः शास्त्र के अनुकूल बरतने वाले और उससे विपरीत आचरण करने वाले दैव और आसुर सृष्टि का विभाग श्रीभगवान् बतलाते हैं-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

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अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 1
अध्याय 2 17
अध्याय 3 68
अध्याय 4 101
अध्याय 5 127
अध्याय 6 143
अध्याय 7 170
अध्याय 8 189
अध्याय 9 208
अध्याय 10 234
अध्याय 11 259
अध्याय 12 286
अध्याय 13 299
अध्याय 14 348
अध्याय 15 374
अध्याय 16 396
अध्याय 17 421
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