श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
ग्यारहवाँ अध्याय
मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो ।
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम् ॥4॥
प्रभो! यदि आप ऐसा मानते हैं कि मेरे द्वारा वह (आपका ऐश्वररूप) देखा जाना सम्भव है तो योगेश्वर! आप मुझे अपने रूप को पूर्णतया दिखलाइये।। 4।।
तत् सर्वस्य स्नष्टृ सर्वस्य प्रशासितृ सर्वस्य आधारभूतं त्वद्रुपं मया द्रष्टुं शक्यम् इति यदि मन्यसे, ततो योगेश्वर योगो ज्ञानादिकल्याण गुणयोगः ‘पश्य मे योगमैश्वरम्’ [1] इति हि वक्ष्यते। त्वद्व्यतिरिक्तस्य कस्य अपि असम्भावितानां ज्ञानबलैश्वर्यवीर्यशक्ति तेजसां निधे आत्मानं त्वाम् अव्ययं मे दर्शय त्वम् अव्ययम् इति क्रियाविशेषणम्; त्वां सकलं मे दर्शय इत्यर्थः।।4।।
ऐसा सबका स्नष्टा, सबका शासक और सबका आधारभूत आपका रूप मुझसे देखा जा सकता है, यह बात यदि आप मानते हों तो योगश्वर! अपने से अतिरिक्त अन्य किसी में भी सम्भव नहीं, ऐसे ज्ञान, बल, ऐश्वर्य,वीर्य शक्ति और तेज आदि गुणों के भण्डार! अपने रूप को मुझे पूर्णतया दिखलाइये। यहाँ ‘योग’ शब्द से ज्ञान आदि कल्याणमय गुणों का संयोग विवक्षित है। क्योंकि ‘पश्य मे योगमैश्वरम्’ यह बात आगे कहेंगे। ‘अव्ययम्’ यह क्रियाविशेषण है। इसलिये यह अभिप्राय है कि अपने रूप का मुझे पूर्णतया दर्शन कराइये।। 4।।
एवं कौतूहलान्वितेन हर्षगद्गदकण्ठेन पार्थेन प्रार्थितो भगवान् उवाच-
इस प्रकार कौतूहल से युक्त और हर्ष के कारण गद्गदकण्ठ हुए अर्जुन के द्वारा प्रार्थना किये जाने पर भगवान् बोले-
पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रश: ।
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च ॥5॥
श्रीभगवान बोले- अर्जुन! तू मेरे नाना प्रकार के दिव्य, नाना वर्ण और आकार वाले सैकड़ों तथा हजारों रूपों को देख।। 5।।
पश्य मे सर्वाश्रयाणि रूपाणि अथ शतशः सहस्रशः च नानाविधानि नानाप्रकाराणि दिव्यानि अप्राकृतानि नानावर्णाकृतीनि शुक्लकृष्णादिनाना वर्णानि नानाकाराणि च पश्य।। 5।।
सबको आश्रय देने वाले मेरे सैकड़ों और हजारों नाना प्रकार वाले दिव्य-अप्राकृत, नानावर्ण और आकृति वाले-श्वेत-कृष्ण इत्यादि नाना वर्णों वाले और नाना आकार वाले रूपों को देख ।। 5।।
|