श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
ग्यारहवाँ अध्याय
न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा ।
दिव्यं ददामि ते चक्षु: पश्य मे योगमैश्वरम् ॥8॥
परन्तु अपने इसी नेत्र से तू मुझे देखने में समर्थ नहीं है। (अतएव) मैं तुझे दिव्य नेत्र देता हूँ (उनसे) तू मेरे ऐश्वरयोग और विभूति योग को भी देख।। 8।।
अहं मम देहैकदेशे सर्व जगद् दर्शयिष्यामि, त्वं तु अनेन नियमित परिमितवस्तुग्राहिणा प्राकृतेन स्वचक्षुषा मां तथाभूतं सकलेतरविसजातीयम् अपरिमेयं द्रष्टुं न शक्यसे। तव दिव्यम् अप्राकृतं मद्दर्शनसाधनं चक्षुः ददामि। पश्य मे योगम् ऐश्वरं मदसाधारणं योगं पश्य, मम अनन्तज्ञानादियोगम् अनन्तविभूति योग ं च पश्य इत्यर्थः।। 8।।
मैं अपने शरीर के एक देश में सम्पूर्ण जगत् तुझे दिखलाऊँगा। परन्तु तू नियमित परिमित वस्तुओं को ग्रहण कर सकने वाले इन प्राकृत नेत्रों के द्वारा अन्य सबसे विजातीय (विलक्षण) उपर्युक्त मुझ अपरिमेय ईश्वर को नहीं देख सकेगा। इसलिये मैं तुझे दिव्य अप्राकृत और मुझे देख सके-ऐसे नेत्र देता हूँ। उनसे तू मेरे योग और ऐश्वर को देख अर्थात् मेरे अनन्त ज्ञान आदि गुणों से युक्त असाधारण योग को देख और अनन्त विभूति योग को भी देख।। 8।।
एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरि: ।
दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम् ॥9॥
संजय बोले- राजा धृतराष्ट्र! इतना कहकर उसके बाद महायोगेश्वर हरि ने अर्जुन को अपना परम ऐश्वर रूप दिखलाया ।। 9।।
एवम् उक्त्वा सारथ्ये अवस्थितः पार्थमातुलजो महायोगेश्वरो हरिः महाश्चर्ययोगानाम् ईश्वरः परब्रह्मभूतो नारायणः परमम् ऐश्वरं स्वासाधारणं रूपं पार्थाय पितृष्वसुः पृथायाः पुत्राय दर्शयामास तद् विविधविचित्र निखिलजगदाश्रयं विश्वस्य प्रशासितृ च रूपम्।। 9।।
इस प्रकार कहने के पश्चात् सारथि के रूप में स्थित अर्जुन के मामा के पुत्र महायोगेश्वर- महान् आश्चर्यमय योगों के ईश्वर श्रीहरि-साक्षात् परब्रह्मरूप नारायण श्रीकृष्ण ने अपने पिता की बहिन पृथा के पुत्र अर्जुन को परम ऐश्वर्ययुक्त अपना असाधारण रूप दिखलाया-इस विचित्र अखिल जगत का आधार और सम्पूर्ण विश्व का शासक अपना आगे बताया जाने वाला रूप दिखलाया।। 9।।
तत् च ईदृशम्-
तथा वह रूप ऐसा था-
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