|
श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
पहला अध्याय
यत्पदाम्भोरुहध्यानविध्वस्ताशेषकल्मषः।
वस्तुतामुपयातोऽहं यामुनेयं नमामि तम्।।
जिनके चरण-कमलों का चिन्तन करने से समस्त पापों का नाश हो जाने के कारण मैं वास्तविक तत्त्व को प्राप्त हुआ हूँ, उन श्रीयामुनाचार्य को प्रणाम करता हूँ।
हरिः ऊँ श्रियः पतिः निखिलहेयप्रत्यनीककल्याणैकतानः, स्वेतरसमस्तवस्तुविलक्षणानन्तज्ञानानन्दैकस्वरूपः, स्वाभाविकानवधिकातिशयज्ञानबलैश्चर्यवीर्यशक्ततेजः प्रभृत्यसड्ख्येयकल्याणगुणगणमहोदधिः, स्वाभिमतानुरूपैकरूपाचिन्त्यदिव्याद्भुतनित्यनिरवद्यनिरतिशयौज्ज्वल्यसौगन्ध्यसौन्दर्यसौकुमार्यलावण्ययौवनाद्यनन्तगुनिधिदिव्यरूपः, स्वोचितविविधविचित्रानन्ताश्चर्यनित्यनिरवद्यापरिमिदिव्यभूषणः, स्वानुरूपासड्ख्येयाचिन्त्यशक्तिनित्यनिरवद्यनिरतिशयकल्याणदिव्यायुधः, स्वाभिमतानुरूपनित्यनिरवद्यस्वरूपरूपगुणविभवैश्चर्यशीलाद्यनवधिकातिशयासड्श्येयकल्याणगुणगणश्रीवल्लभः,
हरिः ऊँ जो श्रीलक्ष्मी जी के पति सम्पूर्ण हेय दुर्गुणों से रहित, एकतान कल्याणमय एवं अपने से अतिरिक्त समस्त वस्तुओं से विलक्षण एकमात्र अनन्त ज्ञानानन्दस्वरूप हैं, जो स्वाभाविक असीम अतिशय ज्ञान, बल, ऐश्वर्य, वीर्य, शक्ति और तेज प्रभृति असंख्य कल्याणमय गुण-समूहों के महान् समुद्र हैं; जिनका दिव्य श्रीविग्रह स्वेच्छानुरूप सदा एकरस अचिन्त्य दिव्य अद्भुत नित्य निर्मल निरतिशय औज्ज्वल्य, सौगन्ध्य, सौन्दर्य, सौकुमार्य, लावण्य और यौवन आदि अनन्त गुणों का भण्डार है; जो अपने ही योग्य विविध विचित्र अनन्त आश्चर्यमय नित्य निर्मल अपरिमित दिव्य आभूषणों से युक्त हैं; जो अपने ही अनुरूप अचिन्त्य शक्तियुक्त नित्य निर्मल निरतिशय कल्याणमय असंख्य दिव्य आयुधों से सम्पन्न हैं; जो अपने मन के अनुरूप नित्य निरवद्य स्वरूपभूत श्रीविग्रह तथा गुण, वैभव, ऐश्वर्य, शील आदि सीमारहित अतिशय असंख्य कल्याणगुणगणसम्पन्ना श्रीलक्ष्मी जी के प्रियतम हैं;
|
|