श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
सतरहवाँ अध्याय
देवासुरविभागोक्तिमुखेन प्राप्यतत्त्वज्ञानं तत्प्राप्त्युपायज्ञानं च वेदैकमूलम् इति उक्तम्।
देव और असुरों के विभाग का वर्णन करते हुए यह कहा गया कि प्राप्त करने योग्य तत्त्व का स्वरूप-ज्ञान और उसकी प्राप्ति के उपाय का ज्ञान एकमात्र वेद से ही हो सकता है।
इदानीम् अशास्त्रविहितस्य आसुरत्वेन अफलत्वं शास्त्रविहितस्य च गुणतः त्रैविध्यं शास्त्रसिद्धस्य लक्षणं च उच्यते।
अब यह कहा जाता है। कि शास्त्रविधि से रहित यज्ञादि आसुर होने से निष्फल हैं और शास्त्रविहित यज्ञादि गुणों के भेद से तीन प्रकार के होते हैं। साथ ही शास्त्रसिद्ध यज्ञादि के लक्षण भी बतलाये जाते हैं।
तत्र अशास्त्रविहतस्य निष्फलत्वम् अजानन् अशास्त्रविहिते श्रद्धासयुक्ते यागादौ सत्त्वादिनिमित्तफलभेदबुभुत्सया अर्जुनः पृच्छति-
वहाँ शास्त्रविधि से रहित यज्ञादि निष्फल होते हैं, इस बात को न जानने वाला अर्जुन, शास्त्र विधि से रहित श्रद्धायुक्त यज्ञादि के विषय में सत्त्व आदि गुणों के कारण होने वाले उनके फलभेद को समझने की इच्छा से पूछता है-
अर्जुन उवाच-
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विता: ।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तम: ॥1॥
अर्जुन बोले- परन्तु श्रीकृष्ण! जो शास्त्रविधि को छोड़कर श्रद्धा से युक्त हुए यज्ञ करते हैं, उनकी निष्ठा क्या है? सत्त्व है या रज है अथवा तम? ।।1।।
शास्त्रविधिम् उत्सृज्य श्रद्धयान्विता ये यजन्ते तेषां निष्ठा का? किं सत्त्वम्? आहो स्वित् रजः? अथ तमः?
जो मनुष्य शास्त्रविधि का त्याग करके श्रद्धापूर्वक यज्ञादि कर्म करते हैं, उनकी क्या निष्ठा है? क्या सत्त्वगुण है या रजोगुण है या तमोगुण?
निष्ठा स्थितिः, स्थीयते अस्मिन् इति स्थितिः, सत्त्वादिः एव निष्ठा इति उच्यते, तेषां कि सत्त्वे स्थितिः? किं वा रजसि? किं वातमसि? इत्यर्थः।।1।।
निष्ठा स्थिति का पर्याय है। जिसमें स्थित हुआ (ठहरा) जाय, उसे स्थिति कहते हैं; इस व्युत्पत्ति के अनुसार यहाँ सत्त्व आदि तीनों गुण ही निष्ठा के नाम से कहे गये हैं। अभिप्राय यह है कि उनकी स्थिति क्या सत्त्वगुण में है या रजोगुण में अथवा तमोगुण में? ।।1।।
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