श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
पाँचवाँ अध्याय
चतुर्थे अध्याये कर्मयोगस्य ज्ञानाकारतापूर्वकस्वरूपभेदो ज्ञानांशस्य च प्राधान्यम्। उक्तम्। ज्ञानयोगाधिकारिणः अपि कर्मयोगस्य अन्तर्गतात्मज्ञानत्वाद् अप्रमादत्वात् सुकरत्वात् निरपेक्षत्वाद् ज्यायस्त्वं तृतीये एव उक्तम्। इदानीं कर्मयोगस्य आत्मप्राप्तिसाधनत्वे ज्ञाननिष्ठायाः शैघ्रयात् कर्मयोगान्तर्गताकर्तृत्वानुसन्धानप्रकारं च प्रतिपाद्य तन्मूल ज्ञानं च परिशोध्यते-
चतुर्थ अध्याय में कर्मयोग की ज्ञानाकारता बतलाकर उसके स्वरूपभेद और ज्ञानांश की प्रधानता का वर्णन किया गया। आत्मज्ञान कर्मयोग के अन्तर्गत ही है, कर्मयोग में प्रमाद नहीं है, वह सुखसाध्य है और दूसरे साधन की अपेक्षा नहीं रखता; इन सब कारणों से ज्ञानयोग के अधिकारी के लिये भी कर्मयोग श्रेष्ठ है, यह बात तो तीसरे अध्याय में ही कह दी गयी थी। अब इस पाँचवें अध्याय में आत्मा की प्राप्ति कराने में ज्ञाननिष्ठा की अपेक्षा कर्मयोग की शीघ्रता जनित श्रेष्ठता और कर्मयोग के अन्तर्गत आत्मा के अकर्तापन को समझने की रीति का प्रतिपादन करते हुए उसके मूल कारण ज्ञान का भी स्पष्टीकरण करते हैं-
सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥1॥
अर्जुन बोले- श्रीकृष्ण! आप (कभी) कर्मों के संन्यास (ज्ञानयोग)- की और फिर कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं, इन दोनों में जो एक सुनिश्चित श्रेष्ठ हो, वह मुझसे कहिये।।1।।
कर्मणां सन्न्यासं ज्ञानयोगं पुनः कर्मयोगं च शससि। एतद् उक्तं भवति द्वितीये अध्याये ‘मुमुक्षोः प्रथमं कर्मयोग एव कार्य; कर्मयोगेन मृदितान्तःकरण कषायस्यज्ञानयोगेन आत्मदर्शनं कार्यम्’ इति प्रतिपाद्य, पुनः तृतीयचतुर्थयोः ‘ज्ञानयोगाधिकारदशाम् आपन्नस्य अपि कर्मनिष्ठा एव ज्यायसी; सा एव ज्ञाननिष्ठानिरपेक्षा आत्मप्राप्त्येक साधनम्’ इति कर्मनिष्ठां प्रशंससि; इति। तत्र एतयोः ज्ञानयोगकर्मयोगयोः आत्मप्राप्ति साधनभावे यद् एकं सौकर्यात् शैघ्रयात् च श्रेयः श्रेष्ठम् इति सुनिश्चितम् तत् मे ब्रूहि ।।1।।
आप पहले तो कर्मों का संन्यास ज्ञानयोग और फिर कर्मयोग भी बतलाते हैं। यहाँ अर्जुन का कहना यह है कि ‘पहले मुमुक्षु को कर्मयोग ही करना चाहिये। उसके बाद जब कर्मयोग के आचरण से अन्तःकरण के दोष नष्ट हो जायँ, तब ज्ञानयोग के द्वारा आत्मसाक्षात्कार करना चाहिये।’ इस बात का दूसरे अध्याय में प्रतिपादन करके फिर तीसरे और चौथे अध्याय में आप इस प्रकार कर्मनिष्ठा की प्रशंसा करते हैं कि ‘ज्ञानयोग की अधिकारदशा को प्राप्त पुरुष के लिये भी कर्मनिष्ठा ही श्रेष्ठ है; क्योंकि वह ज्ञाननिष्ठा की कोई अपेक्षा न रखकर अकेली ही आत्म प्राप्ति की साधिका है’ अतः ज्ञानयोग और कर्मयोग- इन दोनों में जो एक साधन आत्मा की प्राप्ति का साधक होने में सुख-साध्यता और शीघ्रता की दृष्टि से श्रेष्ठ हो-निश्चित रूप से उत्तम हो, वह मुझे बतलाइये।।1।।
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