श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
दसवाँ अध्याय
भक्तियोगः सपरिकर उक्तः। इदानीं भक्त्युत्पत्तये तद्विवृद्धये च भगवतो निरङ्कुशैश्वर्यादिकल्याणगुणगणानन्त्यं कृत्स्नस्य जगतः तच्छरीरतया तदात्मकत्वेन तत्प्रवर्त्यत्वं च प्रपञ्च्यते-
(नवम अध्याय तक) अंगोंसहित भक्तियोग कहा गया। अब भक्ति की उत्पत्ति और उसकी वृद्धि के लिये यह बात विस्तार पूर्वक कहते हैं कि भगवान् के निरंकुश (स्वतन्त्र) ऐश्वर्य आदि कल्याणमय गुणगण अनन्त हैं। सम्पूर्ण जगत् उन्हीं का शरीर होने के कारण वे ही उसके आत्मा हैं; इसलिये इसके प्रवर्तक भी वे ही हैं-
श्रीभगवानुवाच
भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वच: ।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ॥1॥
श्रीभगवान बोले- महाबाहो अर्जुन! फिर भी मेरे श्रेष्ठ वचन को सुन। जो मैं (सुनकर) प्रसन्न होने वाले तुझ भक्त के लिये तेरे हित की कामना से कहूँगा।।1।।
मम माहात्म्यं श्रुत्वा प्रीयमाणाय ते मद्भक्त्युत्पत्तिविवृद्धिरूपहितकामनया भूयः मन्माहात्म्यप्रपञ्चविषयम् एव परमं वचो यद् वक्ष्यामि तद् अवहित मनाः श्रृणे।। 1।।
मेरे माहात्म्य को सुनकर अत्यन्त प्रसन्न होने वाले तुझ भक्त के लिये मेरी भक्ति की उत्पत्ति और वृद्धिरूप तेरे हित की कामना से मैं फिर भी अपने माहात्म्यविस्तारसम्बन्धी जो श्रेष्ठ वचन कहूँगा, उनको तू सावधान चित्त से सुन।। 1।।
न मे विदु: सुरगणा: प्रभवं न महर्षय: ।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वश: ॥2॥
न देवतागण मेरे प्रभाव को जानते हैं और न महर्षिगण; क्योंकि मैं देवताओं और महर्षियों का सब प्रकार से आदि हूँ।। 2।।
सुरगणाः महर्षयः च अतीन्द्रियार्थ-दर्शिनः अधिकतरज्ञाना अपि मे प्रभवं प्रभावं न विदुः, मम नामकर्मस्वरूप स्वभावादिकं न जानन्ति। यतः तेषां देवानां महर्षीणां च सर्वशः अहम् आदिः, तेषां स्वरूपस्य ज्ञानशक्त्यादेः च अहम् एव आदिः;
देवतागण और महर्षिगण जो इन्द्रियातीत विषयों को भी जानने वाले अधिकतर ज्ञान से सम्पन्न हैं, वे भी मेरे प्रभव यानी प्रभाव को नहीं जानते-मेरे नाम, कर्म, स्वरूप और स्वभाव आदि को नहीं जानते। क्योंकि उन देवों और महर्षियों का सभी प्रकार से मैं ही आदि हूँ, उनके स्वरूप का और ज्ञानशक्ति आदि का भी मैं ही आदि हूँ।
तेषां देवत्वदेवऋषित्वादिहेतुभूतपुण्यानुगुणं मया दत्तं ज्ञानं परिमितम्, अतः ते परिमितज्ञानाः मत्स्वरूपादिकं यथावद् न जानन्ति।। 2।।
देवत्व, देवऋषित्व आदि के कारणरूप पुण्यों के अनुसार मेरे द्वारा प्रदान किया हुआ उनका ज्ञान परिमित है, इसलिये वे परिमित ज्ञान वाले होने से मेरे स्वरूपादि को यथार्थरूप से नहीं जानते ।। 2।।
तद् एतद् देवाद्यचिन्त्यस्वरूप याथात्म्यविषयज्ञानं भक्त्युत्पत्ति विरोधिपापविमोचनोपायम् आह-
देवादि के लिये अचिन्त्य मेरे यथार्थ स्वरूप के विषय का वह ज्ञान भक्ति की उत्पत्ति के विरोधी पापों को नष्ट करने का उपाय है; यह बतलाते हैं-
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