श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
नवाँ अध्याय
उपासकभेदनिबन्धना विशेषाः प्रतिपादिताः, इदानीम् उपास्यस्य परमपुरुषस्य माहात्म्यं ज्ञानिनां च विशेषं विशोध्य भक्तिरूपस्य उपासनस्य स्वरूपम् उच्यते-
उपासकों की भिन्नता से सम्बन्ध रखने वाले भेदों का प्रतिपादन हो चुका। अब उपास्यदेव परमपुरुष के माहात्म्य और ज्ञानियों के भेद को स्पष्ट करके भक्तिरूपा उपासना का स्वरूप बतलाते हैं-
श्रीभगवानुवाच
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे ।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥1॥
श्रीभगवान बोले- (अर्जुन!) अब मैं तुझ असूयारहित (मुझमें दोषदृष्टिरहित भक्त)- को वह अत्यन्त गुह्य ज्ञान विज्ञान के सहित कहूँगा, जिसे जानकर तू अशुभ से छूट जायगा।।1।।
इदं तु ते गुह्यतमं भक्तिरूपम् उपासनाख्यं ज्ञानं विज्ञानसहितम् उपासनगतिविशेषज्ञानसहितम् अनसूयवे ते प्रवक्ष्यामि। मद्विषयं सकलेतर विसजातीयम् अपरिमितप्रकारं माहात्म्यं श्रुत्वा एवम् एव सम्भवति इति मन्वानाय ते प्रवक्ष्यामि इत्यर्थः। यद् ज्ञानम् अनुष्ठानपर्यन्तं ज्ञात्वा मत्प्राप्ति विरोधिनः सर्वस्माद् अशुभात् मोक्ष्यसे ।। 1।।
यह गुह्यतम भक्तिरूप उपासना नामक ज्ञान मैं तुझ असूयारहित भक्त को विज्ञान के सहित-उपासना-सम्बन्धी गतिभेदों के ज्ञान सहित कहूँगा। अभिप्राय यह है कि अन्य सब की अपेक्षा सर्वथा विलक्षण, अपरिमित प्रकार वाले मेरे माहात्म्य को सुनकर, ‘यह ठीक ऐसा ही है’ इस प्रकार मानने वाले तुझ भक्त को मैं (अत्यन्त गुप्त रहस्यमय ज्ञान) बतलाऊँगा। जिस ज्ञान को उसके अनुष्ठानपर्यन्त समझकर तू मेरी प्राप्ति के विरोधी समस्त अशुभों से छूट जायगा।। 1।।
राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् ।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ॥2॥
यह (ज्ञान) राजविद्या? राजगुह्य, परम पवित्र, उत्तम, प्रत्यक्ष विषयवाला, धर्ममय, सुखपूर्वक अनुष्ठान करने योग्य (और) अविनाशी है।। 2।।
राजविद्या विद्यानां राजा राजगुह्यं गुह्यानां राजा; राज्ञां विद्येति वा राजविद्या? राजानो हि विस्तीर्णागाधमनसः, महामनसाम् इयं विद्या इत्यर्थः।
(यह ज्ञान) राजविद्या-विद्याओं का राजा और राजगुह्य-गुप्त रखे जाने वाले समस्त भावों का भी राजा है। अथवा राजाओं की विद्या होने से इसका नाम राजविद्या है; क्योंकि राजा विशाल अगाध मनवाले होते हैं और यह विद्या महामना पुरुषों की ही है।
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