विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीकृपायोग का आश्रय और चंद्रोदय‘रन्तुं मनश्चक्रे’ का दो अर्थ है- रन्तुं मनः कृतवान् चक्रे माने कृतवान् रमने का मन किया माने रमण का संकल्प किया और दूसरा अर्थ होता है- अमना भगवान् ने ‘रन्तुं मनश्चक्रे के कृतवान् निर्मितवान् मन बनाया। चंद्रमा ने कहा- यह नियम है जहाँ मन हता है वहाँ उसका अधिदेवता मैं भी रहूँगा। जैसे- आँख में सूर्य है, कान में दिक्देव है नाक में अश्विनीकुमार है, और रसना में वरुण है, वाक् में अग्नि है, हाथ में इंद्र है, पाँव में उपेंद्र है। वैसे ही अब तुम्हारा मन हुआ तो मन में मैं भी रहूँगा। चंद्रमा का मन का देवता है।’ आपको देवता और इन्द्रिय का संबंध बताने लगूँ तो बात थोड़ी जटिल हो जाएगी। रासलीला में जटिलता- कुटिलता का काहे को प्रवेश कराना? जटिला, कुटिला जब आ जाती है, तो राधारानी के रस में बाधा पड़ जाती है, यह लीला की बात है। अच्छा अब देखो- एक भगवत्- संबंधी बात सुनाता हूँ। श्रीमद्भागवत् में यह प्रसंग आया है- एषां तु भाग्यमहिमाच्युत तावदास्तां एकादशैव हि वयं बत भूरिभागाः । ब्रह्माजी कहते हैं कि व्रजवासियों के सौभाग्य की महिमा कौन कहे उसको तो अलग रहने दो, इनकी इंद्रियों में बैठ करके हम ग्यारह देवता भाग्यवान हो गये- ब्रह्म भाग्यवान, विष्णु भाग्यवान, रुद्र भाग्यवान, इन्द्र भाग्यवान, चंद्रमा भाग्यवान, सूर्य, वरुण, अग्नि भाग्यवान। ब्रह्माजी ने कहा- इन व्रजवासियों की इंद्रियों में बैठकर के हम देवता भाग्यवान। ब्रह्माजी ने कहा- इन व्रजवासियों की इन्द्रियों में बैठकर के हम देवता भाग्यवान हो गये। कैसे? ब्रह्माजी बोले- कि सूर्य गोपियों की, व्रजवासियों की आँख में बैठ करके श्रीकृष्ण की रूपमाधुरी का पान करते हैं। वायु देवता हाथ में बैठकर के भगवान् के हाथ के ग्रहण की माधुरी का आस्वादन करते हैं। मन में बैठकर, चंद्रमा, बुद्धि में बैठकर हम ब्रह्मा भाग्यवान हैं, क्योंकि श्रीकृष्ण के साथ इंद्रियों का जो संबंध है वह बड़ा विलक्षण है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 10.14.33
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