विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीयोगमाया का आश्रय लेने का अर्थवृन्दावनं परित्यज्य पादमेकं न गच्छति । पकड़ लिया कृष्ण को वृन्दावन ने! ईश्वर है तो क्या हुआ? प्रेम हो तो ऐसा- सौन्दर्य हो तो ऐसा, माधुर्य हो तो ऐसा। प्रेम बिना रस्सी का बन्धन है। अब देखो- ‘रन्तुं मनश्चक्रे’ का अर्थ है कि हैं अपने आपमें परिपूर्ण परन्तु रमण के लिए मन बनाया। ‘मनः कर्म भूतं चक्रे।’ जैसे कोई कहे ‘कुम्भकारः घटं चक्रे, निर्मितवान्’- ऐसे भगवान् अपना मन बनाया। अब उस मन में पीड़ा का अनुभव किया। मन कहता है कि चलो जमुना किनारे, मन कहता है कि चलो रमण रेती में, मन कहता है कि चलो वृन्दावन में, मन कहता है कि चलो निकुञ्ज में, मन कहता है कि चलो कदम्ब वृक्ष के नीचे वहाँ चलकर बाँसुरी बजाओ। दुनियाँ में कुछ अच्छा नहीं लगता- जब तक गोपियाँ हमारे पास नहीं आएंगी और जब तक रास नहीं होगा तब तक हमको सृष्टि अच्छी नहीं लगती है। अब देखो ‘चक्रे चकार’। एक परस्मैपद होता है, एक आत्मने पद होता है ‘जहाँ सुख दूसरे को मिलने वाला होता है वहाँ चकार बोलते हैं और जहाँ सुख अपने को मिलने वाला होता है वहाँ चके बोलते हैं। कर्म का फल जब अपने को मिलता है तब आत्मने पद ‘चक्रे’ और क्रिया का फल, कर्म का फल जब दूसरे को मिलता है तब परस्मै पद, ‘चकार’। कृष्ण कहते हैं कि राधे। तुम्हारे बिना मैं दुःखी हूँ, तुम्हारे लिए मैं जीवित हूँ। प्रेम के रास्ते में चलें और पीड़ा नहीं हो तब कैसे होगा? पीड़ा तो प्रेम का पूर्व रूप है। अरे भाई। जो सुख देता है उसके लिए दर्द भी होता है, जिससे सुख मिलता है, उसके लिए पीड़ा भी होती है। और जो दुःख देता है उससे बचने की इच्छा होती है। यह मन का स्वभाव है कि जो दुःख देता है उससे बचने की इच्छा होती है जो सुख देता है उससे मिलने की इच्छा होती है। यही तो प्रेम का कुल रहस्य है। तो ‘मनश्चक्रे’- जो भगवान को भी सुख दे उसके भीतर कितना सुख होगा। यशोदा मैया ने भगवान् को यश दिया और गोपियों ने भगवान् को सुख दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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