रासपंचाध्यायी -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 57

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रासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती

रास की दिव्यता का ध्यान

रस अपनी ओर खींचने से अहंकार से दूषित हो जाता है और रस परमात्मा की ओर कर देने से अहंकार का जो कलुष है, कल्मष है, वह उसमें से छूट जाता है। दुनियाँ में मैंने देखा है- प्रेम में असफल कौन हुआ? लोगों का गृहस्थ जीवन देखा है। कौन पत्नी प्रेम में असफल हुई, दुःखी कौन हुई? जिसने आजीवन अपने पति पर अपनी इच्छा चलाने का आग्रह जोड़ा। तो जीवन में परमात्मा की इच्छा के अनुसार चलना, कि परमात्मा को अपनी इच्छा के अनुसार चलाना? भक्ति पर रहस्य है इसमें, शरणागति का रहस्य है, प्रेम का रहस्य है इसमें। प्रेम का यह रहस्य है कि अहंकार का कलुष उसमें न हो। उसके लिए क्या करें? उसके लिए सब कुछ छोड़ सको, यह तैयारी होनी जरूरी है, छोड़ना जरूरी है। ‘रात्री’ शब्द में ये दोनों बातें ध्वनित होती है। गोपियाँ कृष्ण के सिवाय और सबके त्याग के लिए तत्पर हैं। यह तत्पर शब्द जो है न, यही तैयार है- ‘प’ का ‘य’ किसी लेखक के प्रमादवश हो गया है। तैयारी, तात्पर्य-तत्परता। और दूसरे गोपियों के रस का आस्वादन अपने लिए नहीं, उनके लिए है। गोपियों के प्रेम की विशेषता यही है।

एक दिन अर्जुन से कृष्ण से पूछा- श्रीकृष्ण, तुम ‘गोपी-गोपी’ पुकारते रहते हो, क्या हमलोग तुम्हारे कुछ नहीं होते, कुछ नहीं लगते? अरे बाबा! हम भी तुमसे प्रेम करते हैं। श्रीकृष्ण बोले- करते तो हो अर्जुन, लेकिन तुम्हारे प्रेम में और गोपी के प्रेम में फर्क है। क्या फर्क है?

निजांगमपि या गोप्यो, ममेति समुपासते।

ताभ्य: परं न मे किञ्चिन्नगूढप्रेमभाजनम् ।।

अर्जुन, ‘निजांगमपि या गोप्यो ममेति समुपासते’ गोपि कहती हैं- हमारे बाल स्वच्छ रहने चाहिए। क्यों? कि हमारे प्रियतम देखेंगे तो खुश होंगे, उनको खुश रखने के लिए हमने बाल रखा है, हम बहुत सुन्दर लगें, हम खुश हों, इसके लिए हमारे बाल नहीं है। हमारी आँखें प्रसन्न रहें, निर्मल रहें, इसलिए कि कृष्ण कभी देखेंगे कि आज इसकी आँख में खुशी है तो खुश हो जाएंगे, वे हमारी मुस्कान देखेंगे तो मुस्कुरा देंगे। वे शरीर में साबुन क्यों लगाती हैं, तेल क्यों लगाती हैं, साड़ी क्यों पहनती हैं, बाल क्यों सम्हालती हैं, क्यों बन-ठनकर निकलती हैं?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

रासपंचाध्यायी -अखण्डानन्द सरस्वती
प्रवचन संख्या विषय का नाम पृष्ठ संख्या
1. उपक्रम 1
2. रास की भूमिका एवं रास का संकल्प 12
3. रास के हेतु, स्वरूप और काल 28
4. रास के संकल्प में गोपी-प्रेम की हेतुता 40
5. रास की दिव्यता का ध्यान 51
6. योगमाया का आश्रय लेने का अर्थ 63
7. योगमायामुपाश्रित:-भगवान की प्रेम-परवशता 75
8. कृपायोग का आश्रय और चंद्रोदय 85
9. रास-रात्रि में पूर्ण चंद्र का दर्शन 96
10. रास में चंद्रमा का योगदान 106
11. भगवान ने वंशी बजायी 116
12. गोपियों ने वंशी-ध्वनि सुनी 127
13. श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों का अभिसार 141
14. जो जैसिह तैसिह उठ धायीं-1 152
15. जो जैसिह तैसेहि उठ धायीं-2 163
16. जो जैसेहि तैसेहि उठि धायीं-3 175
17. जार-बुद्धि से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव है 187
18. विकारयुक्त प्रेम से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव है 198
19. गोपी दौड़कर गयीं कृष्ण के पास और कृष्ण ने कहा कि लौट-जाओ 209
20. श्रीकृष्ण का अमिय-गरल-वर्षण 214
21. गोपी के प्रेम की परीक्षा-धर्म का प्रलोभन 225
22. ‘लौट-जाओ’ सुनकर गोपियों की दशा का वर्णन 238
23-24. प्रेम में सूखी जा रहीं गोपियाँ आखिर बोलीं 248
(प्रणय-गीत प्रारम्भ)
25. गोपियों का समर्पण-पक्ष 261
26. श्रीकृष्ण में रति ही बुद्धिमानी है 276
27. गोपियों की न लौट पा सकने की बेबसी और मर जाने के परिणाम का उद्घाटन 286
28. गोपियों का श्रीकृष्ण को पूर्व रमण की याद दिलाना 297
29-31. गोपियों में दास्य का उदय 307
32. गोपियों में दास्य का हेतु-1 338
33. गोपियों में दास्य का हेतु-2 353
34. गोपियों में दास्य का हेतु-3 366
35-36. गोपियों की चाहत 376
(प्रणय-गीत समाप्त)
37-39. प्रथम रासक्रीड़ा का उपक्रम 393
40. रास में श्रीकृष्ण की शोभा 429
41. रास-स्थली की शोभा 441
42. रासलीला का अन्तरंग-1 453
43. रासलीला का अन्तरंग-2 467
44. रासलीला का अन्तरंग-3 480
45. रासलीला का अन्तरंग-4 494
46. अंतिम पृष्ठ 500

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