विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीरासलीला का अन्तरंग-2यह क्या हुआ कि अपने सुख में सुखी होना। गोपी के प्रेम में क्या विशेषता है? उद्धवजी ने कहा- अरी गोपियों, श्रीकृष्ण के विरह में तुमको बड़ा दुःख है, तुम हमें आज्ञा दो, हम तुम्हारे चरणों की धूलि अपने सिर में लगाकर आज ही मथुरा जाते हैं और श्रीकृष्ण को पकड़कर ले आते हैं। कैसे नहीं आवेंगे, हम उनके सखा हैं! गोपी ने कहा- उद्धवजी, यदि हम अपना दुःख दूर करने के लिए और अपने सुख के लिए उनको बुलाती होवें तो वे कभी नहीं आवें। स्यान्नः सौख्यं यदपि बलवद्गोष्ठमाप्ते मुकुन्दे यद्यल्पापि क्षतिरुदयते तस्य मागात्कदापि। उनके आने से हमको सुख होगा- यह हम मानती हैं लेकिन हमें सुख देने के लिए यदि उनको संकोच हो तो वे कभी न आवें; हम दुःख में प्राण दे सकती हैं, परन्तु अपने सुख के लिए हम प्रियतम् को यहाँ आने के लिए कभी जिद नहीं कर सकतीं। भरतजी क्या बोलते हैं- जो सेवक अपने स्वामी को संकोच मे डालकर सुख चाहता है उसकी बुद्धि छोटी है। समुझहिं राम कुटिल करि मोहीं। लोग कहैं गुरु साहिब द्रोही ।। चाहे राम मुझे कुटिल समझें, मुझे अपना प्रेमी न समझें और चाहे लोग भी कहें कि भरत रामचंद्रका, और गुरु का द्रोही है। परन्तु-
हमारे हृदय में आपके अनुग्रह से सीता-रामचंद्र का प्रेम बढ़े।। न हमें लोकप्रसिद्धि की आवश्यकता है, न रामचंद्र की स्वीकृति की आवश्यकता है, न हम उनको संकोच में डालना चाहते हैं, और न तो हम अपना सुख चाहते हैं; हम तो चाहते हैं बाबा उनको जैसे सुख हो वही हो! यद्यल्पापिक्षतिरुदयते तस्यामागात्कदापि- गोपी कहती हैं कि उनके आने से हमको मनोलाभ होता है लेकिन यहाँ आने से यदि उनको रत्तीभर भी हानि होती है तो वे यहाँ ने आयें; तुम नीके रहो, वहीं पर रहो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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