विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीरास में श्रीकृष्ण की शोभाशास्त्र में वर्णन है कि चाहे कोई क्रीं-विद्या-सिद्ध हो, और चाहे हीं-विद्यासिद्धि हो-चाहे कोई महाकाली, महालक्ष्मी-महासरस्वती सिद्ध हो, सिद्धि का फल होता है कि सिद्ध पुरुष के आसपास स्त्री और पुरुष मँडराते रहते हैं, हमने उपासनाशास्त्र का स्वाध्याय किया है, उसमें देवता की सिद्धि, और मंत्र की सिद्धि का लक्षण दिया है-
वही श्रीकृष्ण जिनके मात्र स्मरण से सिद्धि प्राप्त होती है वह श्रीकृष्ण स्वयं गोपियों के बीच में, वृत्तियों के बीच में चैतन्य के समान, अथवा इडा-पिंगला-सुषुम्ना के योग में योग के समान, श्रुतियों में परमतात्विक ब्रह्म के समान, आज विशेष शोभा को प्राप्त हो रहे हैं। असल में श्रीकृष्ण में ब्रह्म का साधारणीकरण हो गया। जिस ब्रह्म को वेदान्ती, अवाङ्मनसगोचर है वही सर्वेन्द्रियगोचर है। इस बात के अनुभव में केवल अज्ञान ही प्रतिबन्धक है, इसके सिवाय और कुछ भी प्रतिबन्धक नहीं है। जब तक नहीं पहचानते तब तक-तद्दूरे और पहचान लें तो- तद्वन्ति के तदेजति अरे, वही नाच रहा है। गोपियों के साथ, तन्नैजति- कभी चुप खड़ा हो जाता है, कभी चिबुक हिलता है, कभी आँख खुलती है- तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्ति के- कभी नाचता-नाचता दूर चला जाता है, कभी नाचता-नाचता पास आ जाता है, कभी तदन्तरस्य सर्वस्य, गोपीजनस्य कभी सब गोपीजनों के बीच में है; तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः- कभी सबसे जाकर अलग खड़ा हो जाता है। त्रिभंगललितभाव से वह दृष्ट हो रहा है और उसके मुखारविन्द से उदार हास प्रकट हो रहा है। उदारहासद्विजकुन्ददीधितिः- उदारहास माने उन्मुक्त हँसी। किसी-किसी को हँसी आती है तो वह रूमाल से मुँह ढक लेता है। अरे, नाचन लगे तब लाज कहाँरी। जब हँसने लगे तब लाज काहे की? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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