विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीप्रथम रासक्रीड़ा का उपक्रमआँख बन्द करके मन में किसी दूसरे की तस्वीर नहीं आनी चाहिए, अपने प्रियतम आनी चाहिए, परमात्मा की होनी चाहिए, भगवान् की होनी चाहिए, मुरलीमनोहर पीताम्बरधारी श्यामसुन्दर की होनी चाहिए। (4) अभिमानाभाव- हृदय में मान-वृत्ति माने अभिमान नहीं होना चाहिए। सब दुःखों की जड़, उनका बीज अभिमान में ही रहता है। अपने मन के मुताबिक नहीं हुआ, अपनी वासना पूरी नही हुई, मालूम हो गया कि अपमान हो गया, तो दुःख आयेगा। अपमान न तो आत्मा का होता है न प्रेमी का; अभिमान का अपमान होता है। अपनी इच्छा के विपरीत कुछ हो गया तो अभिमान पर चोट लगी; और अपनी इच्छा के अनुकूल हुआ तो अभिमान का वजन थोड़ा और बढ़ गया। इच्छा की प्रतिकूलता में भी दुःख, और इच्छा की अनुकूलता में भी दुःख; हर्ष और विषाद दोनों दुःख के मूल हैं। तो हँसना हो तो प्यारे की याद करके और रोना हो तो प्यारे के लिए। यह जो दुनिया की चोट बैठती है अपने मन पर, वह नहीं बैठनी चाहिए। अपने अभिमान की रक्षा में जब आदमी लग जाता है, तो स्वनिष्ठ हो जाता है और तब भगवत्-प्रेम नहीं होता। यह बात गोपियों के जीवन में आगे आयी है जब उन्होंने अपने को परमसुन्दरी माना और यह ख्याल हुआ कि हमारा सौभाग्य इतना बड़ा। कृष्ण ने कहा कि अब शीशा ले लो और उसमें अपना मुँह देखो। अब हम तुम्हारे सामने रहने वाली नहीं है, क्योंकि जब तुम ही इतनी बड़ी हो, तो शीशे में अपना मुँह देखो, हमें देखने की क्या जरूरत है?
(5)आशाबन्ध- इसी जीवन में हमको हमारे प्रियतम मिलेंगे-मिलेंगे राम, मिलेंगे राम, यह आशा दृढ़ बँध जानी चाहिए। निराशा होने से प्रेम शिथिल हो जाता है। जहाँ तक मिलन की आशा है वहाँ तक श्रृंगाररस है; और जहाँ मिलन की आशा टूट जाती है वहाँ करुणरस हो जाता है। तो मन में आशा रहे, मिलन की प्रतीक्षा रहे और व्याकुलता, समुत्कण्ठा हो। मिलने के लिए प्राण जैसे कण्ठ में लगे हों। भगवान् का नाम मुख में आता रहे और उनके गुणगान और ध्यान में रुचि बनी रहे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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