विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीप्रथम रासक्रीड़ा का उपक्रमजीवन-मुक्त पुरुष में भ्रान्ति तो नहीं होती, लेकिन भ्रान्ति प्राग्भाव तो रहता है माने पहले भ्रान्ति थी और मिट गयी परंतु कृष्ण में तो पहले भी भ्रान्ति नहीं थी कि मैं जीव हूँ, परिच्छिन्न हूँ, फिर वह कटेगी कहाँ? उसको काटने के लिए कृष्ण को ब्रह्म कहने की जरूरत नहीं है। लेकिन महाराज श्रीकृष्ण ने ‘आत्मारामोऽपि अरीरमत्’ गोपियों का इतना प्रेमोद्वार श्रवण करने के बाद अपनी तटस्थता का आग्रह नहीं रखा, असंगता का आग्रह नहीं रखा, आत्मारामता का आग्रह नहीं रखा। उनको ऐसा नहीं लगा कि हम अपने आत्मारामता से च्युत हो जायेंगे, अगर गोपियों के साथ नृत्य करेंगे तो। ऐसा नहीं लगा तो ‘आत्मारामोऽपि अरीरमत्’ उन शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, भगवान् श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ विहार किया। श्रीसनातन गोस्वामी जी एक प्रसंग में यह बात कहते हैं कि जितनी गोपियाँ थीं, जो घर-द्वार छोड़कर दौड़ी थीं, अन्योन्यमलक्षतोद्यमाः- एक दूसरे से छिपाकर दौड़ी थीं। तो राधारानी समझ गयीं कि ये जब इकट्ठी होंगी, तो आपस में इनमें सद्भाव नहीं होगा, सौतियाडाह हो जायेगा, वैमनस्य हो जावेगा। तो वे आयी नहीं चुपचाप एक नित्यनिकुंज में बैठी रहीं। उन्होंने सोचा कि देखें, कृष्ण हमको तो बड़ी जल्दी मना लेते हैं, उन सौतियाडाह से ग्रस्त गोपियों को कैसे मनाते हैं। इसलिए वह नित्यनिकुंज में बैठकर तमाशा देख रही थीं कि कृष्ण इतनी गोपियों को एक साथ कैसे प्रसन्न करते हैं। और ये महाराज नटनागर तो बड़े चतुर हैं- क्या किया कि लौट जाओ कहकर सबकी उपेक्षा कर दी; उसका परिणाम यह हुआ कि सब एकराय हो गयीं, रोने में सबका सद्भाव बन गया और कृष्ण फँस गये। तब राधारानी ने देखा कि अब सबका मन ठीक है तो अब हम भी चलकर मिल जायँ। आकर झट श्रीकृष्ण के बगल में खड़ी हो गयीं। आत्मारामोऽपि- अब तक तो कृष्ण अकेले थे और अब जब श्रीराधारानी आकर उनके बगल में खड़ी हो गयीं तो बोलीं- प्यारे, ये सब गोपियाँ बहुत दुःखी थीं, और तुमसे सचमुच सच्चा प्रेम करती हैं; पहले तो मैं नहीं जानती थी कि इतना प्रेम करती हैं, लेकिन आज देख लिया कि इनका तुमसे बहुत प्रेम है; तो जब इतना प्रेम है तो आओ, हम सब मिलकर रासविलास करें; इनको भी आनन्द आवे, हमको भी आनन्द आवे, इसके लिए, आत्मारामोऽपि अरीरमत कहा है। जैसे गीता में है-अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् । वैसे ही- आत्मारामोऽपि- राधया आलिंगतोऽपि- आकर के यद्यपि श्री राधारानी ने उनका आलिंगन कर लिया तथापि दोनों में एकमन होकर कहा कि आनन्द मिलना चाहिए, उन्हें उनके प्रेम का रस प्राप्त होना चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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