विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीप्रथम रासक्रीड़ा का उपक्रमश्रीकृष्ण को ऐसा लगा कि जो आनन्द हमारे अन्दर है, हममें है, उससे कुछ ज्यादा आनन्द गोपियों में है। कैसे? देखो- इसकी बात बताते हैं। असल में भगवान भक्ति के अधीन हैं। भगवान कहते उसको हैं जो प्रेम के वश में हो, भक्ति के वश में हो। यह प्रश्न विशेष करके प्रीति-संदर्भ में श्रीजीवगोस्वामी जी महाराज ने उठाया है। श्रीचैतन्य महाप्रभु के संप्रदाय का बड़ा भारी प्राणाणिक ग्रंथ है। उन्होंने यह प्रश्न उठाया कि भगवान तो संपूर्ण जगत् को अपने वश में रखने वाला है, यह भला भक्ति के वश में क्यों हो जाता है? भक्ति में ऐसी क्या विशेषता है? तो बोले- पहले यह देखो कि सांख्यवादी कहते हैं कि भक्ति जो है वह सत्त्वगुण की वृत्ति है तो क्या सत्त्वगुण की वृत्ति भगवान को अपने वश में कर सकती हैं? नहीं कर सकती, बिलकुल झूठी बात। योगियों ने कहा कि भक्ति अक्लिष्टवृत्ति है। अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष; अभिनिवेश रूप तो नहीं है, समाधि की ओर ले जानेवाली वृत्ति है; परंतु निरोध तो उसका भी होता है; तो क्या योगाभ्यास के द्वारा निरुद्ध होने वाली अक्लिष्टवृत्ति भगवान को वश में कर सकती हैं? वेदान्तियों ने कहा- भक्ति माया की वृत्ति है। तो भला। माया की वृत्ति मायापति भगवान को वश में कैसे करेगी? भक्तिरेवेनं गमयति भक्तिरेवेनं वर्द्धयति भक्तिरेवेनं नयति । भक्ति ही भगवान का दर्शन कराती है, भक्ति ही अनुभव कराती है, भगवान भक्ति के वश में है। भक्ति में यह सामर्थ्य कहाँ से आया? बोले- अच्छा, सच्चिदानन्दघन भगवान जो हैं उनकी आनन्दमयी वृत्ति है भक्ति। तो नारायण, भगवान की शक्ति कहीं शक्तिमान को वश में करती है? तब यह भक्ति क्या है? तो बोले- देखो, भगवान में तीन शक्ति हैं- आह्लादिनी, संधिनी और संवित्। उनमें जो आह्लादिनी शक्ति है उसके भी तीन रूप हैं- अंतरंगा तटस्था और बहिरंगा। संसार में जो विषय-सुख मिलता है वह बहिरंग का सुख हो जो समाधि सुख है। वह तटस्था का सुख है, वहाँ साक्षी द्रष्टा होकर सुख लेते हैं। और एक अंतरंगा है जो भगवान की स्वरूपभूत आवाज है। तो बोले- क्या भगवान अपने स्वरूप के वश में हो जाते हैं? आदमी अपने वश में स्वयं कैसे हो जाय? बोले- नहीं-नहीं, भगवान की स्वरूपभूता आह्लादिनी है, उस आह्लादिनी का भी जो सारसर्वस्व है उसको बोलते हैं राधा, उसी के वश में भगवान हैं; भक्ति शब्द का मुख्य अर्थ है राधा; इसी भक्ति के वश में है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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